मीर सुलतान ख़ान : शतरंज की दुनिया का बादशाह
सब बुरे मुझ को याद रहते हैं
जो भला था उसी को भूल गया
1930 की दिसंबर थी और इंग्लैंड का हास्टिंग्स शहर, दुनिया भर के शतरंज के खिलाड़ी वहां होने वाले सालाना खेल में हिस्सा ले रहे थे। क्यूबा से आनेवाले अपने समय के महानतम शतरंज के खिलाड़ी जोज़ राउल कापब्लांका जो कि अविजयी माने जाते थे एक ब्रिटिश इंडिया से आये खिलाड़ी से मुक़ाबला कर रहे थे। ये पंजाबी यूँ तो 1929 में ब्रिटिश चैस चैंपियनशिप जीत कर ख़ुद को स्थापित कर चुका था लेकिन तब भी कापब्लांका को हराना उसके लिए नामुमकिन ही माना जा रहा था। लेकिन देखते ही देखते इस पंजाबी खिलाड़ी ने कापब्लांका को पटख़नी दे दी। शतरंज के इतिहास में ये खेल ‘ख़ान का ग़ुस्सा’ नाम से प्रसिद्ध हो गया। आज भी आप इस खेल पर कंप्यूटर गेम्स देख सकते हैं।
कौन था ये पंजाबी ? क्यों हमको इस इंसान का नाम नहीं पता ?
ये पंजाबी खिलाड़ी थे मीर सुलतान ख़ान जो ब्रिटिश इंडिया के पंजाब के मिट्ठा तिवाना से ताल्लुक़ रखते थे। इनका परिवार पीर और ज़मींदारों का ख़ानदान था और पिता मियां निज़ाम दीन ने ही इनको शतरंज की चालों से रू-ब-रू कराया था। 1903 में जन्मे सुल्तान ख़ान 21 बरस की उम्र आते आते पंजाब के सबसे मज़बूत शतरंज के खिलाड़ी माने जाने लगे। यही वो समय था जब सर उमर हयात ख़ान, जिनका परिवार सुल्तान ख़ान के भी पीर की हैसियत रखता था, ने इनको महाना तनख़्वाह के साथ इस पर राज़ी कर लिया कि वो उनके घर रह कर शतरंज की एक टीम बनाएंगे।
1928 में सर उमर ने ऑल इंडिया चैस चैंपियनशिप कराई जिसको सुलतान ख़ान आराम से जीत गए। 1929 की अप्रैल में सर उमर के साथ सुलतान इंग्लैंड पहुंचे। इंग्लैंड की धरती पर क़दम रखने के दो दिन के भीतर ही उनका कापब्लांका से, जी वही कापब्लांका, अनौपचारिक मुक़ाबला हुआ जिसको सुलतान ने आसानी से जीत लिया। तब ये कह दिया गया कि कापब्लांका से रानी को चलने में ग़लती हो गयी।
उसी साल, 1929 में सुलतान ने ब्रिटिश चैस चैंपियनशिप जीत ली। यहाँ दो बातें ग़ौर करने वाली हैं। एक कि ब्रिटिश चैस चैंपियनशिप विश्व प्रतियोगिता जैसी ही होती थी क्योंकि ब्रिटिश साम्राज्य था ही इतना बड़ा। दूसरा यह कि सुलतान भारतीय उपमहाद्वीप के तरीक़े से शतरंज सीखे थे और वह यूरोपीय तरीक़े से काफ़ी अलग होता है।
उसके बाद सुलतान कुछ महीनों के लिए पंजाब वापिस आ गए लेकिन 1930 में सर उमर के साथ एक बार फिर इंग्लैंड पहुंचे और शतरंज की दुनिया पर अपना झण्डा लहरा दिया। 1932 और 1933 के ब्रिटिश चैस चैंपियनशिप को जीता। इस दौरान वह ब्रिटिश साम्राज्य का शतरंज के ओलिंपियाड में भी प्रतिनिधित्व करते रहे। कापब्लांका के अलावा सलो फ्लोह्र, अकीबा रूबिंस्टीन, और सवेल्ली तरताकोवेर जैसे दिग्गजों को भी इस दौरान उन्होंने धूल चटाई।
1933 में ही सर उमर इंग्लैंड से वापिस पंजाब आ गए और साथ में सुलतान भी। क्योंकि सुलतान के पास इंग्लैंड जाने के संसाधन न थे तो वह इसके बाद कभी अंतर्राष्ट्रीय मुक़ाबलों में हिस्सा न ले सके और अपने पैतृक गाँव में खेतीबाड़ी पर ही ध्यान दिया। आज़ादी के बाद उनका ज़िला पाकिस्तान के हिस्से में आया और वह पाकिस्तानी नागरिक हो गए जहाँ उन्होंने 1966 में दुनिया को अलविदा कहा।
1950 के बाद जब शतरंज की अंतरर्राष्ट्रीय संस्था ने ग्रैंड मास्टर का ख़िताब देना शुरू किया तो कई रिटायर हो चुके खिलाड़ियों को इस ख़िताब से नवाज़ा गया लेकिन सुल्तान ख़ान साहब को ये ख़िताब न मिला।
आमतौर पर कुछ किताबों में और लेखों में यह दावा किया जाता है कि मीर सुलतान ख़ान अनपढ़ थे और उमर हयात ख़ान के नौकर थे इस दावे को मीर सुलतान ख़ान का परिवार ख़ारिज करता आया है। उनका कहना है कि ऐसा अंग्रेज़ लेखक अपनी नस्लभेदी प्रवृत्ति के चलते कहते हैं जबकि मीर सुलतान ख़ुद ज़मींदार परिवार से थे और अंग्रेज़ी, उर्दू और अरबी जानते थे।
(लेखक जाने माने इतिहासकार हैं)