दो दो विश्व युद्ध, पंद्रह फ़रवरी, सिंगापूर और भारतीय सैनिक

पहली जंग ए अज़ीम यानी प्रथम विश्व युद्ध और दूसरी जंग ए अज़ीम यानी द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सिंगापूर मे हिन्दुस्तान को अजीब ओ ग़रीब हालात का सामना करना पड़ा था; और ख़ास कर उस दिन जब तारीख़ 15 फ़रवरी हो। सिंगापूर में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान 1915 में भारतीय सिपाहीयों ने अंग्रेज़ों से बग़ावत की थी; जिसके बाद उन्हे अंग्रेज़ों की गोली का शिकार होना पड़ा। वहीं दूसरी जानिब द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान 1942 में सरेंडर के बाद जिन जिन भारतीय सिपाहीयों ने अंग्रेज़ों के तईं वफ़ादारी दिखाई उन्हे जापान की फ़ौज ने अपने फ़ाईरिंग स्कॉड में मौत के घाट उतार दिया।

हुआ कुछ युं के सिंगापूर में पहली जंग ए अज़ीम के दौरान 15 फ़रवरी 1915 को शाम 3:30 मे पांचवी लाईट इंफ़ैंट्री रेजिमेंट के सिपाही इस्माइल ख़ान ने फ़ायरिंग कर अंग्रेज़ो से बग़ावत की शुरूआत कर देता है। ये ग़दर तहरीक के क्रांतिकारीयों और रेशमी रुमाल तहरीक से जुड़े रज़ाकारों की एक मिलीभगत थी, जिसके तहत पुरे हिन्दुस्तान में बग़ावत करवाना था। पहले विश्व युद्ध को भारत के क्रांतिकारियों ने अपने मक़सद के लिए सुनहरा मौक़ा माना।

वीरेन्द्र चट्टोपाध्याय के क़ियादत में ज्यूरिख में बर्लिन कमेटी बनाई गई, तो लाला हरदयाल, सोहन सिंह भाखना, बरकतुल्लाह भोपाली ने अमेरिका मे और सिख क्रांतिकारियों ने कनाडा मे ग़दर पार्टी शुरू की और भारत में इसकी कमान जुगांतर पार्टी के नेता बाघा जतिन के हवाले की। फिर तैयार हुआ जर्मन प्लॉट, जर्मनी से हथियार आना था, और पैसा चुकाने के लिए ग़दरीयों ने कई डकैतियां डालीं।

बंगाल, उत्तर प्रदेश, पंजाब, सिंगापुर जैसे कई ठिकानों में 1857 जैसे सिपाही विद्रोह की योजना बनाई गई। फ़रवरी 1915 की अलग-अलग तारीख़ें तय की गई। हर जगह ग़द्दारों की वजह कर ये प्लानिंग नाकाम हो गई पर सिंगापूर में वो लोग कामयाब हो गए।

देखते ही देखते बैरकों में मौजूद तमाम अफ़सरों का क़त्ल कर दिया जाता है और एक अंदाज़ के हिसाब से 850 से अधिक बाग़ीयों का जत्था सड़कों पर घूमा करता था और अपने सामने आने वाले किसी भी यूरोपियन का क़त्ल कर डालता था।

ये बग़ावत दस दिनों तक जारी रहा, बाद में फिर सिंगापूर वौलेंटियर आर्टिलरी के जवानों, ब्रिटिश दस्तों, जोहोर के सुलतान व दिगर दस्ते की मदद से इस बग़ावत को दबा दिया जाता है।

फिर बग़ावत के जुर्म में मार्च 1915 को औटरम रोड, सिंगापूर के किनारे खड़ा कर के 47 बाग़ीयों को गोली मार दी जाती है। फिर बाद मे 36 बाग़ीयों को मार डाला गया और 77 अफ़सरों को जिलावतन कर दिया गया जिसमे से ज़्यादातर को 7 से 20 साल की कै़द की सज़ा दी गई।

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वहीं द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भी सिंगापूर जंग का एक बार फिर मरकज़ बना। यहां पर अंग्रेज़ो का क़ब्ज़ा था, जहां अंग्रेज़ो ने अपना मज़बूत मलेट्री बेस बना रखा था और इस जगह को उस समय पुरब का जिब्रालटर भी कहा जाता था। जापान की फ़ौज ने इस जगह पर हमला कर हफ़्ते भर मे इस पुरा ख़ित्ते को जीत लिया जिसके बाद ब्रिटिश फ़ौज ने 15 फ़रवरी 1942 को सिंगापूर में सरेंडर कर दिया। लगभग 80000 भारतीय, ऑस्ट्रेलियाई और ब्रिटिश सिपाही युद्धबंदी बन गए, जिनमें से कई लोगों को बाद में मज़दूरों के रूप में “हेल शिप्स” कहे जाने वाले क़ैदी जहाज़ों के ज़रिया से बर्मा, जापान, कोरिया या मंचूरिया ले जाया गया। सुक़ूत ए सिंगापुर यानी सिंगापूर का पतन अंग्रेज़ी इतिहास में फ़ौजों का सबसे बड़ा सरेंडर था।

जापानियों ने बड़े पैमाने पर यहां क़त्ल ए आम किया, मरने वाले अधिकतर चीनी नागरिक थे जो मलाया में रह रहे थे। इसके बाद भारतीय सिपाहीयों को भी मारा गया, और मरने वालों में एक बड़ी तादाद सिख़ों की थी, जिनके आंख में पट्टी बांध कर जापानी फ़ायेरिंग स्कॉड पर निशाना लगाते थे।

एैसा माना जाता है के हिन्दुस्तान की जंग ए आज़ादी में अहम भुमिका निभाने वाली आज़ाद हिन्द फ़ौज के लिए 35 से 40 हज़ार हिन्दुस्तानी सिपाहीयों की बहाली इंडियन इंडिपेंडेस लीग के रास बिहारी बोस ने यहीं से कैप्टन मोहन सिंह के मदद से की थी।

सिंगापूर का नया नाम स्योनान-तो या शोनान-तो दिया गया जिसे जापानी में “लाइट ऑफ़ द साउथ आइलैंड” यानी दक्षिणी द्वीप का प्रकाश कहा जाता है, जिस पर 1942 से 1945 तक जापानियों का कब्ज़ा बना रहा।

1945 के आख़िर तक आज़ाद हिन्द फ़ौज ने भी अंग्रेज़ों के सामने ना चाहते हुए भी हथियार डाल दिया। लाल क़िले में इनका ट्रायल हुआ, जनता ने हांथो हांथ लिया और लाल क़िले के बाहर ये नारा गूंजता रहा “ढिल्लो – सहगल – शाहनवाज़, इन तीनो की हो उमर दराज़”, “जय हिन्द बोल दो – लाल क़िला खोल दो”। अभी ये मामला चल ही रहा था के नवम्बर 1945 रॉयल एयर फ़ोर्स ने हड़ताल कर दिया और फ़रवरी 1946 में नौसेना में भी विद्रोह हो गया, अंग्रेज़ों पर काफ़ी दबाव बढ़ गया, ख़ून ख़राबा भी हुआ, बम्बई, जबलपुर और कलकत्ता में सैकड़ो लोग अंग्रेज़ो की गोली का शिकार हुए तब उस समय साहिर लुधियानवी ने शहीदो को ख़िराज ए अक़ीदत पेश करने के लिए एक नज़्म लिखी :

ऐ रहबरे-मुल्को-क़ौम बता
आँखें तो उठा नज़रें तो मिला
कुछ हम भी सुने हमको भी बता
ये किसका लहू है कौन मरा…

धरती की सुलगती छाती पर
बेचैन शरारे पूछते हैं
हम लोग जिन्हें अपना न सके
वे ख़ून के धारे पूछते हैं
सड़कों की ज़ुबां चिल्लाती है
सागर के किनारे पूछते हैं।
ये किसका लहू है कौन मरा…

ऐ अज़्मे-फ़ना देने वालो
पैग़ामे-वफ़ा देने वालों
अब आग से क्यूँ कतराते हो
मौजों को हवा देने वालो
तूफ़ान से अब क्यूँ डरते हो
शोलों को हवा देने वालो
क्या भूल गए अपना नारा
ये किसका लहू है कौन मरा…?

हम ठान चुके हैं अब जी में
हर ज़ालिम से टकरायेंगे
तुम समझौते की आस रखो
हम आगे बढ़ते जायेंगे
हम मंज़िल ए आज़ादी की क़सम
हर मंज़िल पे दोहराएँगे
ये किसका लहू है कौन मरा…


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Md Umar Ashraf

Md. Umar Ashraf is a Delhi based Researcher, who after pursuing a B.Tech (Civil Engineering) started heritagetimes.in to explore, and bring to the world, the less known historical accounts. Mr. Ashraf has been associated with the museums at Red Fort & National Library as a researcher. With a keen interest in Bihar and Muslim politics, Mr. Ashraf has brought out legacies of people like Hakim Kabeeruddin (in whose honour the government recently issued a stamp). Presently, he is pursuing a Masters from AJK Mass Communication Research Centre, JMI & manages heritagetimes.in.

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