श्रद्धांजलि : इतिहासकार शतद्रु सेन का असामयिक निधन
Shubhneet Kaushik
आधुनिक भारत के बेहतरीन इतिहासकार शतद्रु सेन का 8 अक्तूबर को महज 49 वर्ष की आयु में निधन हो गया। सिटी यूनिवर्सिटी ऑफ न्यूयॉर्क में दक्षिण एशियाई इतिहास के प्रोफ़ेसर शतद्रु सेन का जन्म जनवरी 1969 में कोलकाता में हुआ। युवावस्था में ही परिवार के साथ शतद्रु सेन अमेरिका गए, जहाँ से उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ कैलीफोर्निया, बर्कली से बीए और एमए किया। वाशिंगटन यूनिवर्सिटी से उन्होने पी-एचडी की। और वे वाशिंगटन यूनिवर्सिटी और परड्यू यूनिवर्सिटी में शिक्षक भी रहे।
शतद्रु सेन ने अपने लेखन में राज्य और सत्ता के अंतरसंबंधों, कानून और शासन की जटिलताओं, उपनिवेशवाद व साम्राज्यवाद के चरित्र और उपनिवेशों के लोगों के रोज़मर्रा जीवन पर उसके प्रभाव की गहन व्याख्या की है। शतद्रु के इतिहासलेखन पर मिशेल फूको की विचार-प्रणाली और चिंतन प्रक्रिया का गहरा प्रभाव देखने को मिलता है।
औपनिवेशिक शासन की समूची परियोजना में उपनिवेशों के लोगों के शरीर के नियंत्रण और उसके इस्तेमाल का अध्ययन करते हुए शतद्रु ने वर्ष 2000 में अपनी पहली किताब ‘डिसिप्लिनिंग पनिशमेंट’ लिखी। इस किताब में उन्होंने 1857 के विद्रोह के बाद विद्रोहियों और राजनीतिक कैदियों को अंडमान भेजने (‘काले पानी की सजा’) और अंडमान में ‘पेनल कॉलोनी’ बनाने की प्रक्रिया का विस्तार से अध्ययन किया।
इस प्रक्रिया ने 1898 में सेल्यूलर जेल बनने के साथ ही संस्थागत रूप ग्रहण कर लिया था। शतद्रु औपनिवेशिक संदर्भ में ‘अपराध’ और ‘पुनर्वास’ की परिभाषाओं, दंड-विधान के उद्देश्यों और औपनिवेशिक राज्य द्वारा दी जाने वाली सजा के विरुद्ध भारतीयों के प्रतिरोध का भी ब्यौरा देते हैं।
अंडमान के इतिहास पर ही लिखी अपनी एक अन्य किताब ‘सैवेजरी एंड कॉलोनियलिज़्म इन इंडियन ओशन’ (2009) में शतद्रु अंडमानवासियों, ब्रिटिश उपनिवेशवादियों और वहाँ सजा काट रहे भारतीयों की परस्पर अंतःक्रिया का विवरण देते हैं और वे इस अंतःक्रिया के सामाजिक-राजनीतिक-वैचारिक आयामों की भी पड़ताल करते हैं।
भारतीय क्रिकेट के पिता माने जाने वाले क्रिकेटर और नवानगर के महाराजा रणजीत सिंह (1872-1933) के जीवन को आधार बनाकर शतद्रु ने वर्ष 2004 में अपनी किताब ‘माइग्रेंट रेसेज़’ लिखी। यह पुस्तक औपनिवेशिक भारत में इंग्लैंड जाने वाले भारतीयों और उनके द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन अपनी अस्मिता गढ़ने के प्रयासों और औपनिवेशिक भारत व साम्राज्यवादी ब्रिटेन के सम्बन्धों के बारे में है।
अगले ही वर्ष शतद्रु की एक और किताब छपी, ‘कॉलोनियल चाइल्डहुड्स : द जुवेनाइल पेरीफेरी ऑफ इंडिया’। जिसमें शतद्रु उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से लेकर बीसवीं सदी के पहले चार दशकों के दौरान औपनिवेशिक भारत में ‘बचपन’ की अवस्था पर हुई राजनीति का ऐतिहासिक विश्लेषण करते हैं। वे दिखाते हैं कि कैसे उपनिवेशवाद द्वारा निर्मित सांस्कृतिक-बौद्धिक संदर्भ में भारत में बचपन को, बाल्यावस्था को पुनःपरिभाषित किया गया और इसके क्या अभिप्राय थे। वे यह समझने की कोशिश करते हैं कि उपनिवेशवाद व राष्ट्रवाद द्वारा बचपन, अभिवावक और परिवार की धारणाओं का इस्तेमाल कैसे अपनी-अपनी परियोजनाओं में किया गया।
शतद्रु की आखिरी किताब ‘बिनय कुमार सरकार : रिस्टोरिंग द नैशन टू द वर्ल्ड’ 2015 में छपी। इस किताब में उन्होंने भारतीय समाजशास्त्री बिनय कुमार सरकार (1887-1949) के नस्ल, जेंडर, शासन और राष्ट्रीयता संबंधी विचारों का अध्ययन किया और इस क्रम में बीसवीं सदी के भारत के बौद्धिक इतिहास को विश्व के राजनीतिक इतिहास के संदर्भ में देखने की कोशिश भी की।