सैयद हसन इमाम, भारत का एक महान स्वतंत्रता सेनानी
सैयद हसन इमाम का जन्म 31 अगस्त, 1871 को पटना ज़िला के नेउरा गांव में हुआ। आपके वालिद का नाम सैय्यद इमदाद इमाम था और बड़े भाई का नाम सर अली इमाम था। टीके घोष अकेडमी से शुरुआती पढ़ाई करने के बाद पटना कॉलेजिएट स्कूल में दाख़िला लिया। तीन साल भी इस स्कूल में नही गुज़रा के बीमार रहने लगे; डॉक्टर ने माहौल चेंज करने की सलाह दी; तब आपको आरा भेजा गया। वहाँ के सरकारी स्कूल में दाख़िला लिया; वहीं आपकी मुलाक़ात सच्चिदानंद सिन्हा से हुई। कुछ दिन बाद 1887 में वापस पटना आ कर कॉलेजिएट स्कूल में दाख़िला लिया। अंग्रेज़ी ज़ुबान पर पकड़ बहुत अच्छी हो गई थी। इस वजह कर स्कूल के प्रिंसिपल उनसे काफ़ी ख़ुश रहते और उन्हें पटना कॉलेज के डिबेटिंग सोसाइटी में हिस्सा लेने के लिए लगातार प्रेरित करते।
हसन इमाम की माँ की ख़्वाहिश थी के बड़े बेटे अली इमाम की तरह हसन इमाम भी पढ़ने को इंग्लैंड जाएँ, इस लिए 24 जुलाई 1889 को वकालत की पढ़ाई के लिए इंगलैंड के मिडिल टेम्पल गए। वहाँ उनका अधिकतर समय वहाँ की लाइब्रेरी किताब पढ़ते गुज़रता था। इस समय सच्चिदानंद सिन्हा भी वकालत की पढ़ाई के इंग्लैंड आ चुके थे। दोनो न सिर्फ़ रूम पार्ट्नर बने; बल्कि साथ लंदन यूनिवर्सिटी कॉलेज में प्रफ़ेसर हेनरी से एक साल तक हिस्ट्री में लेक्चर भी अटेंड किया। लंदन के पैडिंटॉन पार्लियामेंट के डिबेट वो लगातार हिस्सा लिया करते थे; जहां उनकी क़दर एक लीडर के रूप में होती थी। और वहाँ के प्रेस में भी उनकी तक़रीर को लेकर चर्चा हुआ करता था।
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हसन इमाम इंग्लैंड की इंडियन सोसाइटी के सचिव थे; जिसके अध्यक्ष दादा भाई नैरोजी थे। इसके साथ ही वो लंदन के अंजुमन इस्लामिया नामी इस संगठन के भी सचिव थे; जिसकी स्थापना मज़हरुल हक़ ने की थी। उसी दौरान जब विल्लीयम डिग्बे वेल्स के दौरे पर आए तब हसन इमाम उनके निजी सचिव के तौर पर कई महीने उनके साथ रहे।
1891 में हुवे आम चुनाव में दादा भाई नैरोजी को जीताने में हसन इमाम ने अहम रोल अदा किया और 1892 में भारत लौटे और कलकत्ता हाई कोर्ट में इंड्रोल कर पटना में रहने लगे। देखते ही देखते बड़े मशहूर वकील के रूप में गिने जाने लगे। कई साल तक भारत के अलग अलग हिस्सों से केस लड़ने के लिए बुलाया जाने लगा। वो पटना मुंसिपेलटी और डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के सदस्य भी रहे। 1910 में उन्होंने पटना से कलकत्ता की तरफ़ रुख़ किया, और वहीं बस गए। उनकी क़ाबिलियत देख कर लॉरेंस जेंकिंस जो उस समय बंगाल के चीफ़ जस्टिस थे, ने हसन इमाम को जज की कुर्सी सम्भालने की दावत दी; जिसे उन्होंने अप्रिल 1911 में क़बूल कर लिया। 5 मार्च 1916 तक वो कलकत्ता हाईकोर्ट में जज के पद पर रहे। हसन इमाम का तबादला कलकत्ता से पटना हाई कोर्ट होने ही वाला था, पर बिहार के गवर्नर ने इसका सख़्त विरोध किया, तब हसन इमाम ने इस्तीफ़ा दे कर वकालत का पेशा फिर से इख़्तियार कर लिया। 6 मार्च 1916 को पटना हाई कोर्ट की स्थापना हुई, और इसी दिन हसन इमाम ने यहाँ प्रैक्टिस शुरू की; जो उनकी आख़री साँस तक जारी रहा।
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वकालत से हसन इमाम ने शोहरत के साथ बहुत पैसा कमाया, हसन मंज़िल और रिज़वान कैसल जैसी आलीशान इमारत बनाने के इलावा वो अलीगढ़ और बनारस के मशहूर संस्थान को लगातार चंदा देते रहे। उस ज़माने में बीएन कालेज पटना को हर साल एक हज़ार रूपये बतौर सहयोग राशि देते थे। इसके इलावा शिक्षा के लिए जो लोग कोशिश कर रहे होते उन्हें भरपूर सहयोग देते। साथ ही वो ग़रीब छात्रों को पढ़ाई के खुल कर मदद करते थे। 1903 में बादशाह नवाब रिज़वी ज़नाना स्कूल के स्थापना में अहम रोल अदा किया और उसके सचिव बने। हसन इमाम से प्रेरित होकर टेकारी महराज ने अपनी अधिकतर दौलत महिलाओं की शिक्षा के लिए वक़्फ़ कर दिया; तब हसन इमाम को टेकारी बोर्ड के सम्मानित सदस्य बने; और लड़कियों की पढ़ाई के लिए कई स्कीम सुझाए। 1911 में हसन इमाम अलीगढ़ कॉलेज के ट्रस्टी बने थे; और उसके लिए फ़ंड जमा करने की ख़ातिर एक कमेटी बना कर बिहार के अधिकतर क़स्बों में गए। बिहार के पढ़े लिखे लोगों द्वारा एक ‘द बिहारी’ नामक संस्था बनाई गई, हसन इमाम इसके अध्यक्ष बने।
वकालत के इलावा हसन इमाम कई मुद्दों पर बिल्कुल ही मुखर थे; उन्होंने अलग बिहार राज्य की स्थापना के लगातार जद्दोजहद किया। 1905 में बंगाल राज्य के विभाजन का समर्थन अलग बिहार राज्य माँग कर रहे अधिकतर नेताओं ने की थी; हसन इमाम भी उनमें से एक थे। 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना ढाका में हुई, हसन इमाम भी वहाँ मज़हरुल हक़ के साथ थे। 1908 में कांग्रेस के सेशन में हिस्सा लेने मद्रास गए, और वहाँ से लौटने के बाद 1909 में बिहार प्रदेश कांग्रेस कमिटी की स्थापना सोनपुर में की गई और इसके पहले अध्यक्ष हसन इमाम ही बने और इसी साल नवम्बर में बिहार स्टू़डेन्ट्स कांफ़्रेंस के चौथे सत्र की अध्यक्षता गया में की। दिसम्बर 1911 में कांग्रेस का सेशन कलकत्ता में हुआ, हसन इमाम ने सिर्फ़ उसमें हिस्सा ही नही लिया, बल्कि अगला सेशन बिहार में करने की दावत भी दे दी। जो क़बूल भी हुआ, 1912 में कांग्रेस के सेशन बांकीपुर में हुआ, जिसने पिछले किसी भी सेशन की मुक़ाबले सबसे अधिक मुस्लिम शरीक हुवे; इसका सेहरा भी हसन इमाम के सर बंधता है।
1916 में होमरूल आन्दोलन में भी उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। 1917 में बिहार प्रांतीय कांफ्रेस के अध्यक्षता की और जब अप्रिल 1917 में गांधी जी बिहार आए, तब हसन इमाम ने उनका भरपूर सहयोग दिया।
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कांग्रेस का एक विशेष सेशन 29 अगस्त से 1 सितम्बर 1918 तक बम्बई में हुआ, इसकी अध्यक्षता भी सैयद हसन इमाम ने ही की।
इसी साल हसन इमाम ने सर्चलाइट नामक एक राष्ट्रवादी अंग्रेज़ी अख़बार निकालने में अहम रोल अदा किया; इस अख़बार के पहले सम्पादक सैयद हैदर हुस्सैन थे।
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6 अप्रैल 1919 को रॉलेट एक्ट के ख़िलाफ़ पटना में ज़बरदस्त हड़ताल हुआ, हिंदु मुस्लिम एकता की बेहतरीन झलक थी, दुकानदार, से लेकर किसान तक ने हड़ताल में हिस्सा लिया, जानवरों को भी छुट्टी दे दी गई. बैल और घोड़े को सवारी के लिये उपयोग नहीं किया गया. क़िला मैदान में हसन इमाम की अध्यक्षता में एक बड़ा जुलुस जामा हुआ, यहाँ तमाम बड़े नेताओं ने ख़िताब किया।

1920 में ख़िलाफ़त और सहयोग आंदोलन के समय आगे आगे रहे। और 1921 में ख़िलाफ़त आन्दोलन को नतीजे पर पहुंचाने के लिए भारतीयों का एक डेलीगेशन हसन इमाम की अध्यक्षता में इंगलैंड गया। सहयोग आंदोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेने की ख़ातिर हमेशा अंग्रेज़ी लेबास में रहने वाले हसन इमाम खादी का कपड़ा पहनने लगे थे।1921 में बिहार उड़ीसा विधान परिषद के मेम्बर बने और इसके पहले निर्वाचित उपाध्यक्ष चुने गए।
1923 में लीग ऑफ़ नेशन की चौथी असेंबली में भारत की नुमाइंदगी करने जनेवा गए। 1927 में बिहार में साइमन कमीशन के बहिष्कार आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे। वहीं 1930 के सविनय अवज्ञा आन्दोलन में सिर्फ़ ख़ुद हिस्सा नही लिया, बल्कि उनकी पत्नी और बेटी ने सक्रिय रूप से भाग लिया; जिन पर अंग्रेज़ों ने जुर्माना भी लगाया। वो स्वदेशी लीग के अध्यक्ष भी रहे।
19 अप्रिल 1933 को 62 साल की उम्र में बिहार के शाहाबाद ज़िला के जपला नामक गांव में आपका इंतक़ाल हुआ, आपकी क़ब्र वहीं मौजूद है। उन्होंने अपने पीछे दो बेटी और तीन बेटा छोड़ा।