मौलाना सैयद अताउल्लाह शाह बुख़ारी : जिनके जीवन का तीन हिस्सा रेल में और एक हिस्सा जेल में कटा
शाह जी का नानिहाल पटना था, पटना में ही उनकी विलादत 23 सितम्बर 1892 को हुई, चार साल के थे तो माँ का साया सर से उठ गया, नानिहाल के एकलौते वारिस थे इसलिए बचपन और नौजवानी का बड़ा हिस्सा पटना में ही गुज़रा।
Syed Ata Ullah Shah Bukhari (23 September 1892 – 21 August 1961), was a religious and political leader from the Indian subcontinent, who Born in #Patna, India.
He started his religious and political career in 1916.
He was one of the Majlis-e-Ahrar-e-Islam's founding members. pic.twitter.com/AuT6N3hAuA
— Heritage Times (@HeritageTimesIN) August 21, 2018
1914 में 21 साल की उम्र में पटना छोड़ शाह जी अमृतसर आ गए, ये वो दौर था जब दुनिया पर पहली जंग अजी़म मुसल्लत की जा रही थी, शाह जी ने दर्स व तदरीस का काम अमृतसर में चालु किया। हिन्दुस्तान को पहली जंग ए अज़ीम के बाद जो सिला मिला उसने पुरे हिन्दुस्तान के लोगों को बरहम कर दिया, रौलेट एैक्ट मार्शल ला और गिरफ़्तारियों से मुल्क का कोई कोना बचा नहीं था।
1919 के जालियाँवाला बाग़ क़त्ल ए आम के बाद हिन्दुस्तान की सियासत में एक नया दरवाज़ा खुला, हिन्दुस्तान की सियासत नए लोगों के हाथों में जाने लगी, रौलेट एैक्ट के विरोध में गांधीजी ने हड़ताल बुलाया और अमृतसर स्टेशन पर पुलिस ने हड़तालियों पर गोलीबारी कर दी जिस वजह कर छ: लोग मारे गए, इस हादसे ने शाह साहब की सियासी ज़िन्दगी का आग़ाज़ कर दिया, शाह जी कहते हैं उस हादसे ने और मौलाना आज़ाद के अल हिलाल में मेरी ज़िन्दगी की काया पलट दी, लाहौर में अंग्रेज़ ख़िलाफ़त कमेटी बनने नहीं दे रहे थे; पर शाह जी ने डंके की चोट पर कहा ख़िलाफ़त कमेटी बनाउंगा और बना कर ही दम लिया!
As the first step of his political career, he began to participate in the movements of the Indian National Congress in 1921 from Kolkata and here again he delivered a very impressive and impassioned speech. Though he was arrested on 27 March 1921 because of that speech. pic.twitter.com/JZlWrTxsrf
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मजलिस अहरार के लोग अपने साथ कुल्हाड़ी रखते थे, शाह जी भी कुल्हाड़ी रखने लगे, पर कुछ दिन बाद पास में तलवार रखने लगे और फिर डंडा! यही वजह थी की शाह जी पंजाब के देहातों में डंडे वाले पीर के नाम से मशहूर थे! शाह जी और मजलिस अहरार में गुल और बुलबुल का रिश्ता था, जिस तरह बिना तक़रीर के शाह जी का ख़याल नहीं किया जा सकता ठीक उसी तरह मजलिस अहरार बिना शाह जी के अधुरी थी।
His speeches were entertaining, eloquent, lucid and full of witty anecdotes and stories from Arabic, Persian, Urdu, Punjabi, and Multani.
He was an exceptional leader who traveled across the length and breadth of the country yet never made any statements to the press. pic.twitter.com/fWn5thZGHI
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शाह जी की ज़िंदगी का तीन हिस्सा रेल में और एक हिस्सा जेल में कटा, शाह जी हिन्दुस्तान का कोना कोना छान मारा, जहां जाते अपनी तक़रीर से लोगों के दिलों में अंग्रेज़ से नफ़रत, अंग्रेज़ी सामान से नफ़रत और उसकी तहज़ीब से नफ़रत को भरते चले जाते। एक बार किसी दोस्त ने शाह साहब से पूछा कि मुल्क की सियासत जिसमें आप इतनी मेहनत कर रहें उसमें आपका नज़रिया क्या है ? शाह साहब जवाब में कहते हैं, ये फ़ैसला तो आप कीजिए मुल्क की सियासत में मेरा काट्रीब्यूशन क्या है ? मैंने लाखों हिन्दुस्तानीयों के दिलों से अंग्रेज़ को निकाल फेंका है, मैंने कलकत्ता से लेकर ख़ैबर तक, कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक की दौड़ लगाई है, वहाँ पहुँचा हुँ जहाँ धरती पानी नहीं देती! रहा ये सवाल के आज़ादी का वो कौन सा तसववुर है जिसके लिए मैं लड़ता रहता हुँ तो समझ लीजिए अपने मुल्क में अपना राज, आप किसी किताबी आयडालोजी के बारे पुछ रहे हैं तो किताबी नजरियें रोग होते हैं। हमारा पहला काम अंग्रेज़ों से छुटकारा हासिल करना है, इस मुल्क से अंग्रेज़ जाएँ, जाएँ क्या ? निकाले जाएँ! तब देखा जाएगा आज़ादी की सरहदें क्या होती है, आप निकाह से पहले छुअहारा बाटना चाहते हैं, फिर मैं कोई दसतूरी हुँ नहीं, सिपाही हुँ, तमाम उम्र अंग्रेज़ों से लड़ता रहा और लड़ता रंहुगा, मैं उन चुटियों को चीनी खिलाने के लिए तैयार हुँ जो अंग्रेज़ों का काट खाए, ख़ुदा की क़सम मेरा सिर्फ़ एक दुश्मन है, अंग्रेज़।
Syed Ata Ullah Shah's greatest contribution had been his germination of strong anti-British feelings among the #MuslimsOfIndia.
He is one of the most notable leader of the Ahrar movement which was associated with opposition to #Jinnah & establishment of an independent #Pakistan. pic.twitter.com/YDYWlkyyWd
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जब सरहदें बँटने लगी तो शाह साहब टूट गए, कलकत्ता बिहार और पंजाब के फ़साद को देखकर कहने लगे, अंग्रेज़ों के मफ़ाद में है कि बस्तियाँ जल कर ख़ाक हो जाएं, लोग क़त्ल हो जाएं! आख़िर जाने से पहले अंग्रेज़ हम से आज़ादी की पूरी क़ीमत वसूल कर जाएगा! बँटवारे के बाद शाह जी सियासत से किनारा कसी कर लिया, शाह जी बँटवारे के ख़िलाफ़ थे इसलिए उन्होंने ख़ुद को हारा हुआ मान कर सियासत से दुरी अख़्तियार कर ली, शाह जी आज़ादी से पहले भी मिरज़ाइयों से लड़ते रहते आज़ादी के बाद भी मिरज़ाइयों से लड़ते रहे, मिरज़ाइयों को अंग्रेज़ की पैदावार मानते थे और बची खुची ज़िंदगी काले अंग्रेज़ से लड़ने में गुज़ार दी!
An official view about him said:
''Ata Ullah Shah Bukhari is a man, who it is better to lock up in jail, away from Congress leaders than to parley with. He has spent a considerable part of his life preaching sedition. He is an amusing speaker, who can influence a crowd.'' pic.twitter.com/z9AF2TImqy
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क़िस्सा ख़्वानी बाज़ार के हादसे के बाद शाह जी ने लाल कुर्ता पहनना शुरु कर दिया, किसी ने पूछा तो कह दिया बेगुनाहों का ख़ून बार बार कचोटता है, दिल्ली में आख़िरी ख़िताब कर रहे थे पंडित नेहरु आए और बैठ गए, जब तक तिलावत करते रहे पंडित नेहरु बैठे रहे, जब तिलावत ख़त्म की तो नेहरु जाने लगे, तब शाह जी ने पूछा इतनी जल्दी ? पंडित नेहरु ने जवाब में कहा अब ये आवाज़ के लिए कान तरसेगी, मैं तो आपकी तिलावत सुनने आया था!
Syed Ata Ullah Shah Bukhari started his religious and political career in 1916. He graphically portrayed the sorrows and sufferings of the poor, and would promise his audience that the end of their sufferings would come about with the end of British rule. pic.twitter.com/4I5Jce0KRr
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हुकूमत के बारे में शाह जी की नज़रिया साफ़ था वो सीधे सीधे लफ़्ज़ों में कहते थे एक एैसी हुकूमत होनी चाहिए हर क़ौम आसानी के साथ ज़िन्दगी गुज़ार सके, समाज से जुर्म का ख़ात्मा हो; चोरी, डकैती, जुआ के अड्डे ,शराब ख़ोरी जैसी चीज़ों पर अगर हमने रोक लगा दी तो ये बड़ी कामयाबी होगी। जो लोग हज़रत अबु बकर और हज़रत उमर रज़ीअल अनहुम जैसी ख़िलाफ़त का वादा करते हैं वो अवाम को धोका दे रहे हैं!
21 अगस्त 1961 को ये सिपाही इस दुनिया को अलविदा कह गया। इस सिपाही का पूरा नाम मौलाना अताउल्लाह शाह बुख़ारी है।