शफ़ाअत निसा बीबी ~ जान से, बदन से, ख़ून से हिन्दुस्तां के हैं हम ! हैरत है, क्यों नहीं है हिन्दुस्तां हमारा !!
जान से, बदन से, ख़ून से हिन्दुस्तां के हैं हम !
हैरत है, क्यों नहीं है हिन्दुस्तां हमारा !!
ये शेर उस औरत कि दिल की आवाज़ है जिसने आज़ादी की तमन्ना में ज़िन्दगी के सारे मुसीबतों को हंस कर झेल लिया, लेकिन आज़ाद हिंदोस्तान में उसकी क़ुर्बानी का सिला जिला वतनी की शक्ल में मिला!
ये आवाज़ है मौलाना अब्दुल अज़ीज़ की छोटी साहबज़ादी और मौलाना हबीबुर रहमान लुधियानवी की अहलिया का है जिनका नाम शफ़ाअत निसा बीबी था !
मुशकिल घड़ी में भगत सिंह के परिवार के सदस्यों को शरण देने वाले मौलाना हबीब उर रहमान लुधियानवी…
मौलाना लुध्यानवी ने जिस बहादुरी, हिम्मत और शुजात का मुज़ाहिरा किया वो अपने आप में एक मिसाल है, लेकिन शफ़ाअत निसा बीबी को कौन जनता है ? मौलाना लुधियानवी सात बार जेल गए और लगभग तीस साल तक क़ैद बंद, गिरफ्तारी, खाना तलाशी, कुर्की ज़ब्ती किया! इस तवील मुद्दत में हिम्मत, सबर के साथ अगर कोई मौलाना लुध्यानवी के साथ था तो वोह उनकी अहलिया थीं।
मौलाना अक्सर खुद कहा करते थे अगर मुझे इस हिम्मती ख़ातून की रफ़ाक़त नसीब न होती तो मैं इतना सियासी काम नहीं कर पाता।
1921 में मौलाना गिरफ्तार हो कर छः माह के लिए जेल चले गए, निकलने वाले ही थे कि किसी दूसरे इलज़ाम में एक साल की सजा हो गयी और साथ में एक हज़ार का जुर्माना, मौलाना ने जुर्माना भरने से इंकार कर दिया, नतीजा ये हुआ कि पुलिस उनके घर कुर्की करने आ गयी। खाने पीने के बर्तन के साथ तवा तक पुलिस लेकर चली गयी बच्चियों तक के कानो से बालियां तक उतार ली गयी।
Maulana Habib-ur-Rehman Ludhianvi :- A Great Freedom Fighter who fought against the British Empire.
वह खुद भी जमीयत उल्मा हिन्द और कांग्रेस की मेंबर थी, कई तहरीकों से जुडी रही, जब मुल्क आज़ाद हुआ तो इनके घर पर ज़ुल्म का पहाड़ टूटा, अपना घर बार छोड़ कर दिल्ली आ गई, दिल्ली में एक मकान में पनाह ली वह दौर फसाद का दौर था, माकन मालिक फ़साद की वजह से घर को छोड़ कहीं और चला गया था, जब माहौल साज़गार हुआ तो माकन मालिक वापस आ गया, लेकिन वोह तो अपने मकान में वापस भी नहीं जा सकती थी।
फ़ज़ल ए हक़ अज़ीमाबादी अपनी किताब ख़्वातीन ए हिंद के तारीख़ी कारनामें में लिखते हैं की इस वाक़िये के बाद वोह अक्सर कहा करती थी जिला वतनी ही हमारी ख़िदमत का सिला है, जिस ख़ातून ने सब कुछ सहा सब कुछ बर्दाश्त किया उससे जिला वतनी का ग़म बर्दाश्त न हो सका और 1 जून 1948 को हमेशा के लिए इस जहाँ को अलविदा कह दिया।