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जब ग़दर पार्टी के संस्थापक लाला हरदयाल के कहने पर अल्लामा इक़बाल ने तरन्नुम में सुनाई “सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा”

तस्वीर 1910 की है, जिसमें आप अल्लामा इक़बाल को गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर में अपने साथियों और शागिर्दों के साथ देख सकते हैं! यही वो जगह है, जहां इक़बाल ने ग़दर पार्टी के संस्थापक और प्रिय शागिर्द लाला हरदयाल के कहने पर पहली बार अपनी प्रसिद्ध रचना “सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा” तरन्नुम में सुनाई थी।

हुआ कुछ युं था के बचपन से मज़हबी घराने में पले बढ़े लाला हरदयाल भारतीय भूमि से निकले हर धर्म, सम्प्रदाय और महापुरूष में काफ़ी आस्था रखते थे। उन्हे भारतीय परम्पराओं से ख़ासा लगाव था। शुरुआती तालीम कैम्ब्रिज मिशन स्कूल से हासिल करने के बाद सेंट स्टीफ़ेंस कालेज, दिल्ली से संस्कृत में स्नातक किया। और इसके बाद पंजाब युनिवर्सटी, लाहौर से संस्कृत में ही एम.ए. करने लगे। इसी दौरान गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर में अल्लामा इक़बाल प्रोफ़ेसर थे, जो वहाँ दर्शनशास्त्र पढ़ाते थे।

उन दिनों लाहौर में नौजवानो के मनोरंजन और तफ़रीह के लिये एक ही क्लब हुआ करता था जिसका नाम था “यंग्समैन क्रिश्चियन ऐसोसिएशन” जिसे ‘वाई.एम.सी.ए’ के नाम से भी जाना जाता था; जहां आम तौर पर बुद्धिजीवी लोग समय बिताने के लिए जाया करते थे। किसी बात को लेकर लाला हरदयाल की क्लब के सचिव से बहस हो गई। बात हिन्दुस्तान के इज़्ज़त की थी; लाला जी ने आव देखा न ताव, फ़ौरन ही ‘वाई एम् सी ए’ के समानान्तर “यंग्समैन इण्डिया ऐसोसिएशन” यानी ‘वाई एम् आई ए’ की स्थापना कर डाली।

जब लाला जी ने अपने प्रोफ़ेसर इक़बाल को सारा माजरा बताया और उनसे ऐसोसिएशन के उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता करने को कहा तो वोह फ़ौरन तैयार हो गये। इस समारोह में इक़बाल ने अपनी प्रसिद्ध रचना “सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा” तरन्नुम में सुनाई। एैसा शायद पहली बार हुआ कि किसी समारोह के अध्यक्ष ने अपने अध्यक्षीय भाषण के स्थान पर कोई तराना गाया हो। इसमें छोटी लेकिन जोश भरी रचना का श्रोताओं पर इतना गहरा प्रभाव हुआ कि इक़बाल को समारोह के आरम्भ और समापन दोनों ही अवसरों पर ये गीत सुनाना पड़ा।

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसिताँ हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी यह गुलसिताँ हमारा

ग़ुर्बत में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में
समझो वहीं हमें भी दिल हो जहाँ हमारा

परबत वह सबसे ऊँचा, हम्साया आसमाँ का
वह संतरी हमारा, वह पासबाँ हमारा

गोदी में खेलती हैं इसकी हज़ारों नदियाँ
गुल्शन है जिनके दम से रश्क-ए-जनाँ हमारा

ऐ आब-ए-रूद-ए-गंगा! वह दिन हैं याद तुझको?
उतरा तिरे किनारे जब कारवाँ हमारा

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
हिंदी हैं हम, वतन है हिन्दोसिताँ हमारा

यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रूमा सब मिट गए जहाँ से
अब तक मगर है बाक़ी नाम-ओ-निशाँ हमारा

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़माँ हमारा

इक़बाल! कोई महरम अपना नहीं जहाँ में
मालूम क्या किसी को दर्द-ए-निहाँ हमारा!

यह तराना पहली बार मौलाना शरर की हफ़्तावार पत्रिका “इत्तेहाद” में 16 अगस्त 1904 को इस टिप्पणी के साथ प्रकाशित हुआ, “एक क्लब की स्थापना हुई है, जिसका सबसे महत्वपूर्ण कार्य यह है कि हिन्दोस्तान के सभी समुदायों में मेलजोल बढ़ाया जाए ताकि वे सब एकमत से देश के विकास और कल्याण की और आकर्षित हों। इस समारोह में पंजाब के प्रसिद्ध और कोमल विचार वाले शायर शेख मुहम्मद इक़बाल ने एक छोटी और पुरजोश कविता पढ़ी, जिसने श्रोताओं के दिलों को जीत लिया और सबके आग्रह पर इसको समारोह के प्रारंभ और समापन पर भी सुनाया गया। इस कविता से चूंकि एकता के उद्देश्य में सफलता मिली, अतः हम अपने पुराने दोस्त और मौलवी मुहम्मद इक़बाल का शुक्रिया अदा करते हुए ‘इत्तेहाद‘ में इसे प्रकाशित कर रहे हैं…”

15 अगस्त 1947 को जब हिन्दुस्तान आज़ाद हुआ तो मध्यरात्रि के ठीक 12 बजे संसद भवन समारोह में इक़बाल का यह तराना “सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा” भी समूह में गाया गया। आज़ादी की 25वीं वर्षगांठ पर सूचना एंव प्रसारण मंत्रालय ने इसकी धुन (टोन) तैयार की। 1950 के दशक में सितारवादक पंडित रविशंकर ने इसे सुर-बद्ध किया। जब इंदिरा गांधी ने भारत के प्रथम अंतरिक्षयात्री राकेश शर्मा से पूछा कि अंतरिक्ष से भारत कैसा दिखता है, तो शर्मा ने इस गीत की पहली पंक्ति कही।

21 अप्रैल, 1938 को अल्‍लामा इक़बाल का इंतक़ाल हो गया। उनकी मौत के बाद दिल्ली की “जौहर” पत्रिका के इकबाल विशेषांक में ‘महात्मा गांधी’ का एक लेख छपा था, जिसमें उन्होंने लिखा था, डॉ इक़बाल मरहूम के बारे में क्या लिखूं, लेकिन मैं इतना तो कह सकता हूं कि जब उनकी मशहूर नज़्म “हिन्दोस्तां हमारा” पढ़ी तो मेरा दिल भर आया और मैंने पूणे की जेल में सैकड़ों बार इस नज़्म को गाया होगा।


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Md Umar Ashraf

Md. Umar Ashraf is a Delhi based Researcher, who after pursuing a B.Tech (Civil Engineering) started heritagetimes.in to explore, and bring to the world, the less known historical accounts. Mr. Ashraf has been associated with the museums at Red Fort & National Library as a researcher. With a keen interest in Bihar and Muslim politics, Mr. Ashraf has brought out legacies of people like Hakim Kabeeruddin (in whose honour the government recently issued a stamp). Presently, he is pursuing a Masters from AJK Mass Communication Research Centre, JMI & manages heritagetimes.in.

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