पटना के पीर अली, लीबिया के बागियों का सरदार उमर मुख़्तार और भोपाल के मौलवी बरकतुल्लाह भोपाली!
3 जुलाई को पीर अली ख़ान के घर सैकड़ों की तादाद में लोग इकट्ठे हुए और उन्होंने पूरी योजना तय की। 200 से अधिक हथियारबंद लोगो की नुमाइंदगी करते हुए पीर अली ख़ान ने गुलज़ार बाग मे स्थित प्राशासनिक भवन पर हमला करने को ठानी जहां से पुरे रियासत पर नज़र राखी जाती थी. ग़ुलाम अब्बास को इंक़लाब का झंडा थमाया गया , नंदू खार को आस पास निगरानी की ज़िम्मेदारी दी गई, पीर अली ने क़यादत करते हुवे अंग्रेज़ों के खिलाफ़ ज़ोरदार नारेबाज़ी की! पर जैसे ही ये लोग प्राशासनिक भवन के पास पहुंचे, डॉ. लॉयल हिंदुस्तानी(सिख) सिपाहियों के साथ इनका रास्ता रोकने पहुंच गया। डॉ. लॉयल ने अपने सिपहयों को गोली चलने का हुक्म सुनाया , दोतरफ़ा गोली बारी हुयी जिसमे डॉ. लॉयल मारा गया, ये ख़बर पुरे पटना में आग के तरह फैल गई।
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पटना के क्रन्तिकारीयों के भीड़ पर चली अँधा दून गोली के नतीजे में कई क्रन्तिकारी मौके पर ही शहीद हो गए और दर्जनों घायल, फिर इसके बाद जो हुआ उसका गवाह पुरा पटना बना , अंग्रेज़ो के द्वारा मुसलमानो के एक एक घर पर छापे मारे गए , बिना किसी सबुत के लोगो को गिरफ़्तार किया गया, शक के बुनियाद पर कई लोगो क़त्ल कर दिया गया। बेगुनाह लोगो मरता देख पीर अली ने ख़ुद को फ़िरंगियों के हवाले करने को सोची! इसी सब का फ़ायदा उठा कर पटना के उस वक़्त के कमिश्नर विलियम टेलर ने पीर अली ख़ान और उनके 14 साथियों को 4 जुलाई 1857 को बग़ावत करने के जुर्म मे गिरफ़्तार कर लिया और बाद में पीर अली ख़ान को पटना के कमिश्नर विलियम टेलर के दफ़्तर ले जाया गया।
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कमिश्नर विलियम ने पीर अली से कहा ‘अगर तुम अपने नेताओं और साथियों के नाम बता दो तो तुम्हारी जान बच सकती है’ पर इसका जवाब पीर अली ने बहादुरी से दिया और कहा ‘ज़िन्दगी मे कई एसे मौक़े आते हैं जब जान बचाना ज़रुरी होता है पर ज़िन्दगी मे ऐसे मौक़े भी आते हैं जब जान दे देना ज़रुरी हो जाता है और ये वक़्त जान देने का ही है।’
“हाथों में हथकड़ियाँ, बाँहों में ख़ून की धारा, सामने फांसी का फंदा, पीर अली के चेहरे पर मुस्कान मानों वे सामने कहीं मौत को चुनौती दे रहे हों।”
इस महान शहीद ने मरते-मरते कहा था, “तुम मुझे फाँसी पर लटका सकते हों, पर तुम हमारे आदर्श की हत्या नहीं कर सकते। मैं मर जाऊँगा, पर मेरे ख़ून से लाखो बहादुर पैदा होंगे और तुम्हारे ज़ुल्म को ख़त्म कर देंगे।”
इस चुनौती के बाद पीर अली ने हथकड़ी लगे अपने हाथों को मिलाकर बड़ी ही जज़बातियत के साथ कहा, ‘मैं आपसे कुछ पूछना चाहता हूं’
कमिश्नर :- ‘ठीक है, क्या पूछना चाहते हो ? बताओ,
पीर अली :- ‘मेरा घर?
कमिश्नर :- ‘उसे ढहा दिया जायेगा’
पीर अली :- ‘मेरी जागीर ?’
कमिश्नर :- ‘उसे सरकार ज़ब्त कर लेगी’
पीर अली :- ‘मेरे बच्चे ?’ और पहली बार वह कमज़ोर दिखा। वह हकलाया।
फिर कमिश्नर ने पूछा के तुम्हारे बच्चे कहां हैं ?
पीर अली :- अवध में हैं।
कमिश्नर :- अभी मुल्क की जो हालात हैं उसमे कुछ भी कहना या वादा करना मुमकिन नहीं है। तब पीर अली उठा, उसने सलाम किया और ख़ामोशी के साथ कमरे से बाहर निकल गया। इसके बाद 7 जुलाई 1857 को पीर अली को बीच चौराहे पर फांसी दे दी गयी।
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सन 1929 में इटली जब लीबिया पर अपना कब्ज़ा करने की लगातार कोशिश कर रहा था तब लीबिया के बागियों का सरदार उमर मुख़्तार इटली की सेना को नाकों तले चने चबवा रहा था। मुसोलिनी को एक ही साल में चार जनरल बदलने पड़े. अंत में हार मान कर मुसोलिनी को अपने सबसे क्रूर सिपाही जनरल ग्राज़ानी को लीबिया भेजना पड़ा. उमर मुख़्तार और उसके सिपाहियों ने जनरल ग्राज़ानी को भी बेहद परेशान कर दिया. जनरल ग्राज़ानी की तोपों और आधुनिक हथियारों से लैस सेना को घोड़े पर सवार उमर मुख़्तार व उनके साथी खदेड़ देते. वे दिन में लीबिया के शहरों पर कब्ज़ा करते और रात होते होते उमर मुख़्तार उन शहरों को आज़ाद करवा देता. उमर मुख़्तार इटली की सेना पर लगातार हावी पड़ रहा था और नए जनरल की गले ही हड्डी बन चुका था. अंततः जनरल ग्राज़ानी ने एक चाल चली और उसने अपने चाल से उमर मुख़्तार को गिरफ़्तार कर लिया, 15 सितम्बर 1931 को हाथों में, पैरों में, गले में हथकड़ी जकड़ उमर मुख़्तार को जनरल ग्राज़ानी के सामने पेश किया गया, 73 साल के इस बूढे शेर से जनरल ग्राज़ानी ने कहा “तुम अपने लोगों को हथियार डालने कहो” ठीक पीर अली ख़ान की तरह इसका जवाब उमर मुख़्तार ने बड़ी बहादुरी से दिया और कहा “हम हथियार नही डालंगे, हम जीतेंगे या मरेंगे और ये जंग जारी रहेगी; तुम्हे हमारी अगली पीढ़ी से लड़ना होगा औऱ उसके बाद अगली से… और जहां तक मेरा सवाल है मै अपने फांसी लगाने वाले से ज़्यादा जीऊंगा .. और उमर मुख़्तार की गिरफ़्तारी से जंग नही रुकने वाली … जनरल ग्राज़ानी ने फिर पुछा “तुम मुझसे अपने जान की भीख क्युं नही मांगते ? शायद मै युं दे दुं…” उमर मुख़्तार ने कहा “मैने तुमसे ज़िन्दगी की कोई भीख ऩही मांगी दुनिया वालों से ये न कह देना के तुमसे इस कमरे की तानहाई मे मैने ज़िन्दगी की भीख मांगी” इसके बाद उमर मुख़्तार उठे और ख़ामोशी के साथ कमरे से बाहर निकल गए। इसके बाद 16 सितम्बर सन 1931 ईसवी को इटली के साम्राज्यवाद के विरुद्ध लीबिया राष्ट्र के संघर्ष के नेता उमर मुख़्तार को उनके ही लोगो के सामने फांसी दे दी गयी।
अब ज़रा ग़ौर कीजिए आज 7 जुलाई है और 7 जुलाई 1854 को भोपाल में अज़ीम इंक़लाबी मौलवी बरकतउल्लाह भोपाली का जन्म हुआ, बरकतउल्लाह भोपाली न्यूयॉर्क, टोक्यो, जियोरन्स, काबुल, मास्को में रह कर हिऩ्दुस्तान की आज़ादी के लिए बहुत ही सफल संघर्ष किया जिसे कोई भी हिन्दुस्तानी झुटला नही सकता है। मौलवी बरकतउल्लाह भोपाली आज़ाद हिन्द सरकार के पहले प्राधानमंत्री थे, ये सरकार साल 1915 को क़ायम की गई थी. जर्मनी, तुर्की और अफ़गानिस्तान ने इस अंतरिम सरकार को मान्यता दी थी। मई 1919 में वे भारत के प्रधानमंत्री की हैसियत से ही लेनिन से मिले थे जहां लेनिन ने उन्हें अाज़ादी की लड़ाई में हर मुमकिन मदद का वादा किया था।
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27 सितम्बर 1927 की रात हर रोज़ हिऩ्दुस्तान की आज़ादी का ख़्वाब देखने वाले मौलाना बरकतुल्लाह भोपाली की आख़री रात थी, उस समय वोह अपने पुरे होश ओ हवास मे थे, और उस वक़्त अपने कुछ साथियों के सामने जो उस समय उनके बिस्तर के पास मौजुद थे से कुछ बात कही जो कुछ इस तरह थे :-
“तमाम ज़िन्दगी मै पुरी ईमानदारी के साथ अपने वतन की आज़ादी के लिए जद्दोजेहद करता रहा, ये मेरी ख़ुशक़िसमती थी के ये मेरी नाचीज़ ज़िन्दगी मेरे प्यारे वतन के काम आई. आज इस ज़िन्दगी से रुख़सत होते हुए जहां मुझे ये अफ़सोस है के मेरी ज़िन्दगी मे मेरी कोशिश कामयाब नही हो सकी वहीं मुझे इस बात का भी इतमिनान है के मेरे बाद मेरे मुल्क को आज़ाद करने के लिए लाखो आदमी आज आगे बढ़ आए हैं, जो सच्चे हैं, बहादुर हैं और दाबाज़ हैं.. मै इत्मिनान के साथ अपने प्यारे वतन की क़िसमत उनके हांथो मे सौंप कर जा रहा हुं।”
मौलाना बरकतुल्लाह भोपाली का इंतक़ाल हो चुका था और उनके चाहने वाले का बुरा हाल था, मौलाना के इंतक़ाल की ख़बर बिजली की तरह पुरे अमेरिका मे फैल गई और अमरीका मे मौजूद हिन्दुस्तानीयों के दिलो पर रंज ओ ग़म के बादल छा गए।
जैसे ही मौलाना बरकतुल्लाह भोपाली के इंतक़ाल की ख़बर हिन्दुस्तान एसोसिएशन ऑफ़ सेंट्रल यौरप के दफ़तर बर्लिन मे पहुंची फ़ौरन एक ताज़ियाती जलसा किया गया, चुंके एसोसिएशन मे काम करने वाले अधिकतर लोग मौलाना के साथी थे. इस जलसे को ख़िताब करने वालो में दुनिया के छ: मुल्क के नुमाईंदे थे.. हिन्दुस्तानयों के इलावा मौलाना को ख़िराज ए अक़ीदत पेश करने वालों मे जर्मन , रुस , ईरान , अफ़ग़ानिस्तान और तुर्की के नुमाईंदों मौजूद थे।
ईरानी नुमाईंदे ने मौलाना बरकतुल्लाह की याद मे अपना नज़राना ए अक़ीदत पेश करते हुए कहा :- “ये सच है के अज़ीम इंक़लाबी बरकतुल्लाह का इंतक़ाल हो गया लेकिन उनका ये जज़्बा ए आज़ादी लाफ़ानी है, वोह हमेशा लाफ़ानी रहेगा.. सभी इंक़लाबी की बैनुलक़्वामी शक्ल होती है, कोई इंक़लाब एक मुल्क या एक ख़ित्ता मे महदूद नही रहता है, बल्के वो तमाम मुल्क को मुतास्सिर करता है, इस लिए किसी भी मुल्क के इंक़लाबी शहीद को सारी दुनिया के आज़ाद पसंद लोग अपना शहीद मानते हैं और इसी लिए उससे मुहब्बत करते हैं, उसकी इज़्ज़त करते हैं और अक़ीदतमंदी के साथ उसे याद करते हैं, ये शहीद आज़ादी के उस रास्ते की तख़लीक़ करते हैं जिस पर जल्द या देर दुनिया की सारी क़ौमों को चलना है, अगर ये शहीद ऩ होते तो दुनिया एक अंधेरी जगह बन जाती।”
अब ग़ौर करने वाली बात यह है के ईरानी नुमाईंदे ने कहा :- “कोई इंक़लाब एक मुल्क या एक ख़ित्ता मे महदुद नही रहता है, बल्के वो तमाम मुल्क को मुतास्सिर करता है, इस लिए किसी भी मुल्क के इंक़लाबी शहीद को सारी दुनिया के आज़ाद पसंद लोग अपना शहीद मानते हैं और इसी लिए उससे मुहब्बत करते हैं, उसकी इज़्ज़त करते हैं और अक़ीदतमंदी के साथ उसे याद करते हैं”
7 जुलाई, 1857 ई. को पीर अली को फाँसी पर लटका कर शहीद कर दिया जाता है और इस हादसे के एक साल बाद यानी 20 अगस्त 1858 को उमर मुख़्तार लीबीया में पैदा होते हैं। 80 साल के वक़्फ़े के बाद भी वही जज़्बा !! आख़िर आता कहां से है ?