प्रेमचंद और किसान आंदोलन

 

प्रेमचंद की रचना की भाषा किसान-चेतना और संघर्ष की भाषा है। उन्हें समझौते की भाषा में तनिक विश्वास न था। वे आन्दोलन के दौर के लेखक थे। यह अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ एक व्यापक जनांदोलन का दौर था। प्रेमचंद इस दौर के प्रतिनिधि रचनाकार हैं। हिंदी साहित्य के पहले सितारे हैं जो रचना-जगत में जन्म से लेकर मृत्यु तक एक समान चमकते रहे हैं। अगर प्रेमचंद को कुछ क्षण के लिए साहित्यकारों की इस लंबी फेहरिस्त से निकाल दिया जाए तो दूसरा कोई नाम बाकी न रह जायेगा जिसने इतनी आत्मीयता और धैर्य के साथ आंदोलन के असली स्वरूप को समझने की कोशिश की हो। प्रेमचंद की रचनाओं में, खासकर जो जीवन-दर्शन है, उसमें निरंतर यानी सन् 36 तक सतत परिपक्वता की झलक देखी जाती है। प्रेमचंद को धनी के रूप से ही घृणा थी फिर भी वे साहित्य की दुनिया में सबसे धनी निकले।

भारत में अंग्रेजी साम्राज्यवाद का इतिहास असंतोष और उसके प्रतिकार के लिए विश्व-प्रसिद्ध है। खासकर किसानों एवं मजदूरों के आंदोलन का एक लंबा और गौरवशाली इतिहास रहा है। प्रेमचंद एक औसत दर्जे के किसान परिवार से आए थे। उनकी इस पारिवारिक पृष्ठभूमि ने भारत में चल रहे तत्कालीन किसान आंदोलन को समझने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। कहना न होगा कि अंग्रेजी राज में किसानों का दोहरा शोषण होता था। नवोदित महाजन वर्ग और जमींदार उनसे मनमाना बेगार लेते थे। किसानों की तंग जिंदगी से भलीभांति अवगत होने के कारण प्रेमचंद ने इसे अपनी रचनाओं का मुख्य विषय बनाया।

प्रेमचंद ने उन किसानों का भी गंभीर अध्ययन प्रस्तुत किया है जो अब भूमिहीन मजदूर बनते जा रहे थे। इसके परिणामस्वरूप लोगां में काम करने में दिलचस्पी नहीं रह गई थी। प्रेमचंद पहले-पहल और एक अति महत्त्वपूर्ण सवाल उठा रहे थे कि काम से अरुचि आखिर क्यों पैदा हो रही थी ? इसकी स्पष्ट समझ के लिए प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’ पढ़ी जा सकती है। इस कहानी में घीसू कामचोर है। आखिर इसका कारण क्या है ? इसका जवाब प्रेमचंद ने मार्क्सवादी लहजे में दिया है। उनका मानना है कि व्यक्ति में यह गुण जन्मजात नहीं होता बल्कि परिस्थितियों की उपज है। उचित मजदूरी न मिल पाने के कारण श्रम से विरक्ति पैदा होने लगती है। यह मार्क्स की ‘एलियनेशन थियेरी’ है जिसको प्रेमचंद ने किसानों-मजदूरों के संदर्भ में समझने की कोशिश की है।

सेवासदन की रचना के समय से ही प्रेमचंद किसानों की समस्या एवं आन्दोलन की ओर आकर्षित होते रहे हैं। सेवासदन के प्रारंभिक भाग में ही प्रेमचंद ने लिखा है, ‘ठाकुर जी ऐसे द्रोही को भला कैसे क्षमा करते ? एक दिन महात्मा चेतू को पकड़ लाये। ठाकुरद्वारे के सामने उस पर मार पड़ने लगी। चेतू भी बिगड़ा। हाथ तो बंधे हुए थे, मुंह से लात घूसों का जवाब देता रहा और जबतक जवान बंद न हो गयी, चुप न हुआ।’ किसान आंदोलन सेवासदन की समस्या नहीं है, लेकिन इस बात से भी कोई सीधे कैसे इनकार कर सकता है कि उन्हीं दिनों प्रेमचंद किसानों की समस्या का भी अध्ययन कर रहे थे। वे उसकी तैयारी में थे।

प्रेमचंद तत्कालीन राजनीति से भी प्रेरित थे। गांधीजी के आंदोलन में किसानों एवं मजदूरों की भी महत्त्वपूर्ण भागीदारी थी। किंतु प्रेमचंद का साहित्य गांधीजी की राजनीति का अनुवाद नहीं था। यह अंतर भी कर लेना चाहिए कि गांधीजी का स्वराज्य प्रेमचंद का सुराज नहीं था। गांधीजी के स्वराज्य में किसान, जमींदार तथा पूंजीपति वर्ग के लोग भी शामिल थे जबकि प्रेमचंद का स्वराज्य किसानों का सुराज था। अपने स्वराज्य को स्पष्ट करते हुए प्रेमचंद ने 1930 के हंस में लिखा था, ‘कुछ लोग स्वराज्य से इसलिए घबड़ा रहे हैं कि इससे उनके हितों की हत्या हो जाएगी। और इस भय के कारण या तो दूर से इस संग्राम का तमाशा देख रहे हैं या जिन्हें अपनी प्रभुता ज्यादा प्यारी है वे परोक्ष या अपरोक्ष रूप से सरकार का साथ देने पर आमादा हैं। इनमें अधिकांश हमारे जमींदार, सरकारी नौकर, बड़े-बड़े व्यापारी और रुपये वाले लोग शामिल हैं। उन्हें भय है कि अगर यह आंदोलन सफल हो गया तो जमींदारी छिन जायगी, नौकरी से अलग कर दिये जाएंगे, धन जब्त कर लिया जायगा।’ आगे फिर लिखा है, ‘हरेक आंदोलन में गरीब लोग ही आगे बढ़ते हैं यह भी अमर सत्य है। इस आंदोलन में गरीब ही आगे-आगे हैं और उन्हीं को रहना भी चाहिए, क्योंकि स्वराज्य से सबसे ज्यादा फायदा उन्हीं को होगा भी…।’

प्रेमचंद का किसान आंदोलन कांग्रेस के भीतर का किसान आंदोलन नहीं है। इसका मतलब यह है कि कांग्रेस के मातहत किसान कभी भी एक वर्ग के रूप में संगठित होकर नहीं लड़े। वे जब कभी भी अपनी मांगों को लेकर संगठित होना चाहते तो उन्हें तोड़ने की साजिश रची जाती। सीधे शब्दों में, कांग्रेस किसानों को असली और निर्णायक लड़ाई से भटका रही थी। अप्रील 1930 के हंस में ये बातें देखी जा सकती हैं …‘मगर किसानों का कोई संध नहीं। उनकी शक्ति बिखरी हुई है। अगर उन्हें संगठित करने की कोशिश की जाती है तो सरकार, जमींदार, सरकारी मुलाजिम और महाजन सभी भन्ना उठते हैं। चारों ओर से हाय-हाय मच जाती है। बोलशेविज्म का हौवा बताकर उस आंदोलन को जड़ से खोदकर फेंक दिया जाता है।’ जाहिर है, किसानों की जो लड़ाई थी, वह कांगेस की लड़ाई नहीं बन सकी थी। किसान भले ही असंगठित थे, पर अपने उद्देश्यों में कांग्रेस से आगे थे।

प्रेमचंद का किसान गांधीजी की अहिंसा के आध्यात्मिक सार को समझने में असफल रहे। शोषण में तड़पती जनता सब्र रखना भूल गई थी। वे कुछ करना चाहते थे। मतलब कि वे कांग्रेस से अलग एक जनवादी लड़ाई लड़ना चाहते थे जिसमें अपरिहार्य हिंसा से कोई परहेज नहीं था। कर्मभूमि के सलीम के शब्दों में, ‘मुझे खौफ है कोई हंगामा न हो जाय। अपने हक के लिए या बेजा जुल्म के खिलाफ रिआया जोश में हो, तो मैं इसे बुरा नहीं समझता, लेकिन यह लोग कायदे कानून के अंदर रहेंगे, मुझे इसमें शक है।’

सवाल यह नहीं है कि किसान कांग्रेस के अंदर लड़ रहे थे या उसके बाहर। वे जहां कहीं भी लड़ रहे थे, कांग्रेसी लीडरों की उस पर अच्छी पकड़ थी।

प्रकाशन : जनशक्ति, पटना, 7. 1. 1990


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