जगदेव प्रसाद: भारत का महान लड़ाका


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– जयन्त जिज्ञासु

 

बिहार के सामंती ठसक वाले इलाक़े में पैदा हुए “बिहार लेनिन” जगदेव बाबू (2 फरवरी 1922 – 5 सितम्बर 1974) एक बग़ावत का नाम है। जिस सामाजिक ग़ैरबराबरी के माहौल में उनकी परवरिश हो रही थी, वह उनके विद्रोही होने का सामान मुहैया करा रहा था। जन्म का दर्द उस शख़्स में था, और आगे चल कर वही उनकी राजनीति का आधार बना। स्कूल-कॉलेज से लेकर सियासी दलों के अंदर वे लोकतंत्र व समता की लड़ाई लड़ते रहे। जन से सीधा जुड़ाव, आस-पास की दुनिया को साफ़ नज़रिये से देखना, तदनुसार राजनीति में सरल रेखा खींचना, नारे गढ़ना व लोगों के दिल में उतर जाना – यही उनका फ़लसफ़ा था।

मिटे ग़रीबी और अमीरी, मिटे चाकरी और मजबूरी।

समता बिना समाज नहीं, बिन समाज जनराज नहीं।

जिसमें समता की चाह नहीं, वह बढ़िया इंसान नहीं।

वे हर क्षेत्र में शोषकों और शोषितों के बीच असमानता की लगातार बढ़ती खाई को लोगों के सामने रखते थे, और उसे पाटने के लिए सौ साल की कार्ययोजना पेश करते थे। वे कहते थे, “जिस लड़ाई की मैं शुरुआत कर रहा हूँ, वह सौ साल लम्बी होगी, इसमें आने वाले पहली पीढ़ी के लोग मारे जाएंगे, दूसरी पीढ़ी जेल जाएगी तथा तीसरी पीढ़ी राज करेगी”। शोषितों की चेतना को झिंझोरने का काम जितना जगदेव बाबू ने किया, उतनी मुखरता से शोषकों से लोहा लेने का काम कम लोगों ने किया। लोहिया की वाणी में ओज के साथ-साथ विरोधियों को बरहना कर देने का लहजा था, जगदेव प्रसाद उस श्रेणी में रखे जा सकते हैं। जब डॉ. लोहिया और संसोपा का नारा देश में गूँजता था- “संसोपा ने बांधी गाँठ, पिछड़े पावें सौ में साठ”, तो उनके अनुयायियों द्वारा मंत्रिमंडल गठन में उस पर अमल नहीं करने पर जगदेव प्रसाद ने सवाल उठाया था। वे कहते थे कि सोशलिस्ट पार्टी (लोहियावादी) के कुछ नेता यह मानने को तैयार नहीं कि ऊंची जाति के नेतृत्व से मुक्त होकर शोषितों का निछक्का दल बनाना और चलाना मुमकिन है। जबकि शोषित मज़दूरों का निछक्का दल हमारी राजनीति में एक फेफड़े का काम करेगा। हाँ, जब हमारा दल सत्तारूढ़ होगा, तो हम ईमानदारी से दस प्रतिशत जगहें उनको देंगे, क्योंकि उनकी तादाद 10 फ़ीसदी है। सनद रहे कि ऊंची जाति के जुल्म के क़िस्म व दायरे में शर्मनाक विस्तार हुआ है। संघर्ष के दौरान यह अनुभव हुआ कि हमारी जनता शोषकों के हमले के जवाब उन्हीं के सिक्के में देने को तैयार हो रही है। शोषकों के पास मोटामोटी तीन हथियार हैं – दौलत, नौकरशाही (न्याय विभाग), और शोषित समाज के पिछलग्गू गुलाम।

ज़ोश-खरोश, मुस्तैदी, लगनशीलता, क़दमपेशी, बुलंदी और हौसले जैसे बुनियादी व ज़रूरी सलाहियत के मुरीद जगदेव बाबू ने तीते-मीठे तज़ुर्बों के आधार पर अपनी राह अलग कर 25 अगस्त 1967 को शोषित दल का गठन किया था, फिर 7 अगस्त 1972 को शोषित समाज दल का। उनका व रामस्वरूप वर्मा का मणिकांचन योग था। वे कहते थे कि भविष्य शोषित दल का ही है। हम किसी पर जुल्म नहीं करना चाहते, लेकिन किसी का ज़ुल्म बर्दाश्त करने के लिए तैयार भी नहीं हैं। अपने लोगों के अंदर जागृति लाने के लिए वे “शोषित” नाम से पत्रिका निकालते थे। शोषित साप्ताहिक पटना से और अर्जक साप्ताहिक लखनऊ से निकला करते थे। कितनी मार्मिक व हक़ीक़ी बात वे कहते थे, “हिन्दुस्तान का शोषित रोटी से पहले प्रतिष्ठा का भूखा है”।

1967 में गठित संयुक्त मोर्चे की सरकार में कम्यूनिस्ट पार्टी के दो सजातीय और परस्पर संबंधी मंत्री बने तथा दोनों अपने 10 महीने के कार्यकाल में भ्रष्टाचार के चलते मधोलकर आयोग में मुजरिम रहे। उस सरकार के 16 मंत्रियों में 11 ऊंची जाति से थे। संसोपा के क़ोटे से बने 6 मंत्रियों में 3 उच्च जाति से आते थे, और उसने “पिछड़ों के लिए 60 प्रतिशत” के सिद्धांत का पालन नहीं किया। पूरे मंत्रिमंडल में 1 भी दलित या आदिवासी मंत्री नहीं थे। जगदेव प्रसाद ने उस सरकार को तोड़ना शोषितों के हक़ में समझा जबकि वे संसोपा में निर्णय लेने वाली बॉडी का हिस्सा थे। उसी सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री बीपी मंडल ने भी इस्तीफ़ा दिया, और शोषित दल बनाने में महती भूमिका निभाई, वे शोषित दल के अध्यक्ष भी रहे। उनके मुख्यमंत्रित्व में शोषित दल की सरकार बनी जिसमें 95 प्रतिशत मंत्री शोषित समाज के थे। जगदेव बाबू कहते कि ऐसी सरकार देश में एक ही बनी और वह है तमिलनाडु की डीएमके सरकार जिसमें शोषक वर्ग का एक भी मंत्री नहीं है।

31 अक्टूबर 1969 को सरदार पटोल की 94वीं जयन्ती पर लौहनगरी जमशेदपुर में उन्होंने आह्वान किया कि शोषक वर्ग के ख़िलाफ़ बग़ावत करो, और अपनी क़ुर्बानी से नया हिन्दुस्तान बनाओ।

अनवरत मेरिट का मीठा सोहर गाने वाली ख़बरपालिका की जो हालत आज है, उस ज़माने में भी उसका रवैया कोई बहुत भिन्न नहीं था। इसलिए, जगदेव बाबू दो टूक कहते थे, “इस मुल्क के अख़बारों पर शोषक वर्ग का कब्ज़ा है। समाचार एजेंसियां भी शोषक वर्ग की इजारेदारी हैं। जो जाली फरेबी समाचार छापा करते हैं, वैसे समाचारपत्रों का राष्ट्रीयकरण कर लेना जनतंत्र की हिफ़ाज़त के लिए ज़रूरी होगा”।

अकारण 27 दिसंबर 1970 को चौथी लोकसभा को भंग कर 5वीं लोकसभा के गठन के लिए मध्यावधि चुनाव की घोषणा पर जगदेव प्रसाद ने कहा, “देश में 27 करोड़ आदमी सिर्फ़ 3 आने रोज़ की आमदनी पर ज़िंदगी गुज़ारने को मजबूर हैं। प्रधानमंत्री ने अमीरी के आईने में ग़रीबी को देखा है। ग़रीबों की टूटी-फूटी झोपड़ी को भी प्रधानमंत्री ने आनंद भवन समझ लिया है। अंदर-अंदर 10-11 करोड़ रुपये इकट्ठा कर लेने के बाद वज़ीरे-आज़म ने पलक मारते लोकसभा को भंग कर दिया, और 2 महीने के अंदर चुनाव का एलान कर दिया”।

25 अगस्त 1969 को “शोषित” के शोषित दल स्थापना दिवस अंक में उन्होंने लिखा, “जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में 10 फ़ीसदी शोषकों का कब्ज़ा है जिससे 90 फ़ीसदी शोषितों को मुक्ति दिलाना ही हमारा लक्ष्य है। 10 फ़ीसदी शोषक बनाम 90 फ़ीसदी शोषित की इज़्ज़त और रोटी की लड़ाई में हिन्दुस्तान में समाजवाद या साम्यवाद की असली लड़ाई है। हिन्दुस्तान जैसे शोषित देश में असली वर्ग-संघर्ष यही है। यदि मार्क्स-लेनिन हिन्दुस्तान में पैदा होते, तो 10 फ़ीसदी शोषक बनाम 90 फ़ीसदी सर्वहारा की मुक्ति को वर्ग-संघर्ष की संज्ञा देते। हिन्दुस्तान का सर्वहारा सांस्कृतिक दृष्टि से भी गुलाम है”। शोषित समाज दल का नारा उन्होंने रखा – शोषितों का राज, शोषितों द्वारा, शोषितों के लिए। उनकी नज़र में शोषक थे- ऊंची जाति, पूंजीपति, सामंत और ब्राह्मणवादी विचारधारा के पोषक। और, शोषित थे- दलित, आदिवासी, मुसलमान और पिछड़ी जातियां। वे अपनी दृष्टि में स्पष्ट थे, और उनका कहना था – जहाँ शोषित समाज दल अभी नहीं है, वहाँ दलित पैंथर या डीएमके है। मैं किसी हालत में शोषक और शोषित की खिचड़ी खाने को तैयार नहीं हूँ।

 

जगदेव बाबू सामाजिक क्रांति के बगैर राजनैतिक क्रांति को नामुमकिन मानते थे। सामाजिक क्रांति के माने विशेष अवसर का सिद्धांत। आर्थिक कार्यक्रम उसी समाजवाद के सिद्धांत पर आधारित होने चाहिए। वे सामाजिक असमानता की जड़ में जाति की असमानता को देखते थे। उसी ने आर्थिक असमानता पैदा किया। रूस की निगाह में अमरीका साम्राज्यवादी है, लेकिन हिन्दुस्तानी शोषित दल की निगाह में इस मुल्क के शोषक असली साम्राज्यवादी हैं।

जगदेव प्रसाद भाषा के मामले में किसी तरह की संकीर्णता के मुख़ालिफ़ थे। उर्दू को लेकर उनका मत था, “उर्दू हिन्दुस्तान की आम आदमी की ज़बान है। पंजाब में मुसलमान नहीं हैं, लेकिन वहाँ उर्दू सबसे ज़्यादा लोकप्रिय है। उर्दू और हिन्दी, दोनों क़ौमी ज़बान हैं। सामप्रदायिकता से इसका कोई संबंध नहीं है”।

1967 की संविद सरकार में महामाया प्रसाद सिन्हा मुख्यमंत्री और कर्पूरी ठाकुर उपमुख्यमंत्री थे। 11 महीने की उस सरकार में सीपीआई और जनसंघ भी शामिल थे। 33 सूत्री कार्यक्रम में एक कार्यक्रम उर्दू को राज्य की दूसरी ज़बान बनाने का भी था, पर जनसंघ के दबाव में ऐसा नहीं होने दिया गया। कम्यूनिस्ट पार्टी भी मुकर गई। जब कांग्रेसी सदस्य नसीरुद्दीन हैदर ख़ां ने उर्दू को राज्य की दूसरी भाषा बनाने का गैर सरकारी प्रस्ताव पेश किया, तो केवल जगदेव प्रसाद ने उसका समर्थन किया था। कम्यूनिस्ट पार्टी को लेकर जगदेव प्रसाद बहुत तीखे हो जाते थे, “कांग्रेस ने भी दलित समाज के जगजीवन राम को अखिल भारतीय नेता बनने का मौक़ा दिया, कैबिनेट में अहम जिम्मेदारी दी, मगर कम्यूनिस्ट पार्टी ने तो किसी दलित, आदिवासी या पिछड़ी जाति के काडर को राष्ट्रीय नेतृत्व में आने ही नहीं दिया। बिहार में कम्यूनिस्ट पार्टी एक सामंती जाति की प्रबंध समिति जैसी है”।

तंग नज़रिया रखने वाले जनसंघ और आरएसएस को लेकर वे बोलते थे कि बिना इन संगठनों को गैरक़ानूनी घोषित कर ख़त्म किये शोषित जनता की इज़्ज़त और रोटी की लड़ाई क़ामयाब नहीं हो सकती। 19 जनवरी 1970 को एक लेख में वे कहते हैं, “जनसंघ की तजबीज में हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी समस्या या सबसे बड़ी मुसीबत मुसलमान है। जनसंघ इसी को देश में वर्ग-संघर्ष मानता है, जबकि सच्चाई यह है कि मुसलमान शोषित हैं। मुसलमान कभी शासक थे, तब शोषक थे, मगर आज वे शोषित हैं”। वे अपनी चिंता प्रकट करते हैं कि पुलिस और मजिस्ट्रेसी में मुसलमान अब नहीं के बराबर रह गए हैं। इसलिए, दंगों में मुसलमानों की हिफ़ाज़त नहीं हो पाती। यह मुल्क 10 प्रतिशत शोषकों का एक विशाल चारागाह बन गया है, हिन्दुस्तानी साम्राज्यवादियों का उपनिवेश बना हुआ है जिसमें 90 प्रतिशत शोषित जनात फटेहाली, बेरोज़गारी, घुटन, छटपटाहट, बेबसी और ऊबडूब की ज़िंदगी गुज़ारने को मजबूर है। शोषकों द्वारा नियंत्रित नौकरशाही विशाल शोषित जनता के साथ हत्यारे, लुटेरे और फंसियारे जैसा व्यवहार करती है।

तस्करी, करवंचना, मिलावट, फ़र्ज़ी उद्योग-धंधों और काला धन को समाप्त करने व मानवतावाद के आर्थिक प्रकटीकरण के रूप में समाजवाद लाने के लिए शोषित समाज दल राष्ट्रहित को देखते हुए वस्तुओं क विनिमय और वितरण का समाजीकरण करे, इसके लिए वे प्रयासरत रहते थे। बेरोज़गारी के ख़ात्मे के लिए “एक आदमी, एक पेशा” के उसूल के वे हिमायती थे। 18 वर्ष के व्यक्ति को वोट का अधिकार मिले, इसकी वे उस वक़्त मांग किया करते थे। 8वीं तक की शिक्षा अनिवार्य व समान तथा सारी शिक्षा मुफ़्त व मानववादी हो, तभी मन से स्वस्थ नागरिक पैदा करने में मदद मिलेगी। समता की स्थापना हेतु दरिद्रता के दलदल से जनसाधारण को निकालना उनकी राजनीति की प्राथमिकताओं में था। कमाई, पढ़ाई, दवाई, सिंचाई, रोटी, कपड़ा, मकान की उपलब्धता को इस तरह सुनिश्चित करने के वे हामी थे कि सबसे तिरस्कृत व दरिद्र की आवश्यकताओं की पूर्ति सबसे पहले हो सके। बेकारी की समस्या मिटाने के लिए किसी परिवार की एक सीमा से अधिक भूमि को लेकर या परती पड़ी भूमि को भूमिहीनों में बांट देने का वे सुझाव देते थे। राजकीय व वन विभाग की जो भूमि बड़ी मात्रा में बेकार पड़ी है और जिसमें सरकार अगले 5 वर्षों में बी वन लगाने में असमर्थ रहेगी, ऐसी वन भूमि पर फलदार वृक्ष लगाने के लिए भूमिहीनों को देने से फलों का उत्पादन व वनों का वास्तविक क्षेत्रफल बढ़ेगा और दरिद्र परिवारों में संपन्नता आएगी।

 

जगदेव प्रसाद की इस पहलक़दमी से शोषक लोग उन्हें जम कर कोसा भी करते। 27 अक्टूबर 1970 को छद्म नाम शंबूक से एक लेख में माओत्से तुंग को उद्धृत करते हुए वे कहते हैं, “जब पूंजीपति (शोषक) गाली दें, तो समझो सही राह पर हो, और यदि वह तुम्हारी प्रशंसा करें, तो समझो तुम ग़लत राह पर हो। जब मेरे वक्तव्य से शोषक वर्ग बौखला उठता है, तो हम समझते हैं कि शोषित क्रांति की धारा ठीक है”। वे ऐलानिया कहते थे, “ऊंची जाति वालों ने हमारे बाप-दादों से हलवाही करवाई है। मैं उनकी राजनैतिक हलवाही करने के लिए पैदा नहीं हुआ हूँ”। जगदेव प्रसाद पर कुछ मौलिक काम हुए हैं। राजेंद्र प्रसाद सिंह ने तो अपने श्रमसाध्य कार्य के ज़रिए उन्हें एक तरह से जी ही लिया है, और हमारी इस पीढ़ी को उनसे करीने से रुबरू कराया है। जितेन्द्र वर्मा की हालिया किताब “अमर शहीद जगदेव प्रसाद: जीवन-संघर्ष और विचार” भी पठनीय है।

 

31 जुलाई 1970 को अमरीका की टेक्सास यूनिवर्सिटी में इकोनोमिक्स के प्रोफेसर टॉमसन ने जगदेव प्रसाद का साक्षात्कार लिया जो राजेंद्र प्र. सिंह व शशिकला द्वारा संपादित “जगदेव प्रसाद वाड़्मय” में संकलित है। इसमें वे एक प्रश्न के उत्तर में कहते हैं, “समन्वयवाद से शोषक को फ़ायदा है और संघर्ष से शोषित को। शोषकों से शोषितों की मुक्ति के लिए दोनों के बीच संघर्ष का बढ़ना निहायत ज़रूरी है। ऊंची जाति की औरतें खेतों में काम करने के ख़याल से घरों से बाहर नहीं निकलतीं”। और, उन्होंने इसी संदर्भ में नारा दिया था – अबके सावन-भादो में/ गोरी कलइया कादो में। आगे प्रो. टॉमसन पूछते हें कि गर आपको हिन्दुस्तान का प्रधानमंत्री बना दिया जाए, तो सामाजिक-आर्थिक क्रांति के लिए कौन-सा कार्यक्रम सबसे पहले कार्यान्वित करेंगे? इस पर जगदेव प्रसाद का उत्तर था, “सरकारी, गैरसरकारी व अर्द्ध-सरकारी नौकरियों में शोषितों के लिए 90 फ़ीसदी जगहें सुरक्षित करूंगा। उससे नौकरशाही पर हमारा कब्ज़ा हो जाएगा जिसके जरिए सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में इंक़लाब व बड़े-बड़े काम आसानी से कर सकेंगे। जिन राजनैतिक दलों के नेतृत्व में 10 फ़ीसदी से ज़्यादा ऊंची जाति के लोग रहेंगे, उन राजनैतिक दलों पर प्रतिबंध लगा देंगे”। डॉ. टॉमसन कहते हैं कि क्या आपके देश का संविधान इसकी अनुमति देता है? इस पर जगदेव प्रसाद का जवाब होता है, “जब संसद में हमारा बहुमत होगा, तो संविधान में क्रांतिकारी संशोधन करके 90 प्रतिशत शोषितों की तरक्की के लायक़ संविधान बना देंगे”।

जगदेव प्रसाद के इन्हीं तेवरों को यथास्थितिवादी व पुनरुत्थानवादी ताक़तें बर्दाश्त नहीं कर सकीं, और शासन-प्रशासन के सामंती गठजोड़ के चलते 5 सितंबर 1974 को एक जनसभा में उन पर गोली चलाई गई, और असमय इस देश का एक आफ़ताब डूब गया। इस देस के क्रूर सामाजिक बुनावट की त्रासदी देखिए कि उन्हें लाठियों से पीटा गया, सड़क पर घसीटा गया, प्यास लगने पर मुंह पर पेशाब कर दिया गया। बड़े अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि जिस रामाश्रय सिंह का नाम उनके क़त्ल की साज़िश करने वालों में उछला था, उन्हें नीतीश कुमार की अगुवाई वाली बिहार की एनडीए सरकार ने न सिर्फ़ संसदीय कार्य मंत्री व जल संसाधन मंत्री बनाया था, बल्कि उनकी प्रतिमा भी लगवाई, उनके नाम पर अस्पताल का नाम भी रखा। सौ में नब्बे शोषितों का आह्वान करने और धन-धरती व राजपाट में उनकी वाजिब हिस्सेदारी की लड़ाई लड़ने वाले का हश्र सामंती व संविधान विरोधी लोग ऐसे ही करते आए हैं। एक बार बिहार की पहली व अब तक की एकमात्र महिला मुख्यमंत्री राबड़ी देवी को जगदेव वाड़्मय भेंट करने गया, तो उन्होंने कहा, “जगदेव बाबू के के नs जानsता!”

जगदेव प्रसाद ने अगर 1989 की नेशनल फ्रंट की सरकार, 1990 की बिहार सरकार और 1996 की यूनाइटेड फ्रंट की सरकार को देखा होता, तो उन्हें थोड़ी तसल्ली ज़रूर मिलती। 7 अगस्त 1990 को पिछड़ों के हक़ में मंडल कमीशन की एक रपट लागू हुई, बाबा साहब और नेल्सन मंडेला को उस सरकार ने भारत रत्न दिया, डॉ. अम्बेडकर की तस्वीर सेंट्रल हॉल में लगी, उनकी जयन्ती पर छुट्टी की घोषणा हुई।

वहीं, लालू प्रसाद के पहले कार्यकाल में पिछड़े समाज के 63 लेजिस्लेटर्स में से 31 मंत्री बने, 12 मुस्लिम लेजिस्लेटर्स में से 8 मंत्री बने, 22 दलित लेजिस्लेटर्स में से 11 को मंत्री बनाया गया, दोनों आदिवासी लेजिस्लेटर्स को मंत्री बनाया गया और 28 अगड़ी जाति के लेजिस्लेटर्स में से 18 को मंत्री बनाया गया.

संयुक्त मोर्चा की सरकार में महिला आरक्षण पर क़ोटे में क़ोटे की मांग के पक्ष में ज़बर्दस्त बहस हुई। देश को पिछड़े वर्ग का पहला प्रधानमंत्री देवगौड़ा के रूप में मिला। वह कई मायने में अद्भुत सरकार थी। पहली बार लोकसभा के स्पीकर आदिवासी समाज के पीए संगमा हुए, जिस जनता दल की अगुवाई वाली सरकार थी, उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू प्रसाद पिछड़े समाज के, कार्यकारी राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव पिछड़े समाज के, लोकसभा में सदन के नेता और रेलमंत्री व संसदीय कार्यमंत्री रामविलास पासवान दलित समाज के, रक्षामंत्री मुलायम सिंह पिछड़े समाज के, संचार मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा पिछड़े समाज के, नागरिक उड्डयन एवं सूचना व प्रसारण मंत्री सी.एम. इब्राहिम अकलियत समाज के, वन एवं पर्यावरण मंत्री सैफ़ुद्दीन सोज़ अकलियत समाज के, इस्पात मंत्री वीरेन्द्र प्रसाद वैश्य पिछड़े समाज के, वाणिज्य और खाद्य, उपभोक्ता व सार्वजनिक वितरण प्रणाली मंत्री देवेन्द्र यादव पिछड़े समाज के, वन व पर्यावरण एवं गैर पारम्परिक ऊर्जा संसाधन राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) कैप्टन जयनारायण निषाद अति पिछड़े समाज के, कोयला राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) कान्ति सिंह (महिला) पिछड़े समाज की, गृह राज्य मंत्री मक़बूल डार अकलियत समाज के थे। फिर जब आइ. के. गुजराल प्रधानमंत्री हुए, तो यूनाइटेड फ्रंट की सरकार के दौरान ही के.आर. नारायणन के रूप में देश को पहला राष्ट्रपति दलित समाज से मयस्सर हुआ।

 

बहरहाल, पहली पीढ़ी के जगदेव प्रसाद मारे गये, दूसरी पीढ़ी के लालू प्रसाद, छगन भुजबल, आदि जेल गये, पर जगदेव बाबू ने जो पथ हमें दिखाया, उस पर तीसरी पीढ़ी के लोग चल सकें, तो राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया को और बल मिलेगा, समाज थोड़ा स्वस्थ होगा। उन्हें याद करने का इससे बेहतर तरीक़ा और क्या हो सकता है कि आज हर ओर दिख रहे जुल्मत के दौर में नई नस्ल उन्हें अपने बीच ही पाती है, और वर्तमान समय के संदर्भों में उनके उपयोगी विचारों को आत्मसात करने की कोशिश करती है।

 


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