वीरानों में खो गया “हॉकी का ब्राजील” भोपाल
भारत में शुरू से ही हॉकी एक मशहूर खेल रहा है। हॉकी स्टिक और कॉर्क की बॉल से खेले जाने वीले इस खेल को भारत में करीब 100 वर्षों से अधिक समय हो चुका है। हॉकी भारत का वह खेल है जिसने आठ स्वर्ण पदकों के विश्व रिकॉर्ड के साथ ओलंपिक में देश को सबसे बड़ा गौरव दिलाया है। देश के करीब हर राज्य में खेले जाने वाले इस खेल का एक गढ़ भोपाल भी रहा है। 1935 के करीब एक समय ऐसा भी था जब भोपाल को हॉकी का ब्राजील भी कहा जाता था।
1936 के बर्लिन ओलिंपिक की स्वर्ण पदक विजेता भारतीय हॉकी टीम में 5 खिलाड़ी (साहबुद्दीन, मो. जफर, मिर्जा मसूद, अहमद शेरखान, ऐशल मोहम्मद खान) भोपाल के हॉकी मैदानों से निकले थे। हॉकी भोपाल का एक कल्चर हुआ करता था। भले ही शहर में हॉकी का बड़ा स्टेडियम नहीं था, पर बच्चों से लेकर युवा हर कोई इस खेल को खेलने में रुचि रखते थे। मगर समय के साथ भोपाल में हॉकी का असतित्व खत्म होने लगा। सियासी तनातनी और बेहतर व्यवस्था ना होने के कारण भोपाल शहर की ह़ॉकी में पहचान खो सी गई है।
भोपाल के गलियारों में ह़ॉकी की शुरुआत
भोपाल में हॉकी की शुरुआत नवाबी शासन से हुई। शहर के लोगों में इस खेल को खेलने की दिलचस्पी बहुत तेज़ी से बढ़ी। शहर का हर बच्चा हॉकी खेलता था फिर चाहे वह हॉकी स्टिक से खेले या फिर खपोटा (लकड़ी का टुकड़ा, जोकी हॉकी स्टिक जैसा होता है) से, माइने नहीं रखता था कि बच्चा मैदान में खेले या फिर गली-मोहल्लों में। जितने ज्यादा लोगों ने इसे खेला, उतने ज्यादा खिलाड़ी भोपाल ने ह़ॉकी को दिए। ऐशल मोहम्मद खान, मो. जफर आदि जैसे खिलाड़ीयों ने तो ओलिंपिक में स्वर्ण पदक जीतकर देश का और भोपाल का नाम भी ऊँचा किया।
भोपाल में पहले 25 से 30 हॉकी क्लब हुआ करते थे, जिनमें क्लब हॉकी खेली जाती थी। साल में कई दर्जनों हॉकी टूर्नामेंट होते थे। इतना ही नहीं भोपाल के हर स्कूल में खेल मैदान थे, हर स्कूल की हॉकी टीमें हुआ करतीं थी और इन टीमों में कॉम्पीटीशन भी गजब था। तब स्कूल लेवल के नेशनल हॉकी टूर्नामेंट हुआ करते थे और भोपाल की टीमें जीतकर आतीं थी।
खो गया शहर से ह़ॉकी का कल्चर
“उस दौर में हॉकी नर्सरी पूरी तरह गुलजार थी, लेकिन आज यह नर्सरी उजड़ चुकी है। “यह अल्फाज वर्ष 1968 में मैक्सिको ओलिंपिक में कांस्य पदक जीतने वाली टीम के सदस्य 73 वर्षीय इनामुर रहमान के हैं। वे भोपाल के उम्रदराज ओलिंपियन हॉकी खिलाड़ियों में शुमार हैं। आब भोपाल हॉकी में वो बात नहीं रही है, न तो क्लब बचे हैं और न ही स्कूल की टीमें। इनामुर ने बताया की पहले यहां हॉकी खिलाड़ी पैदा तो होते हैं, लेकिन उनकी डाइट कमजोर है जिसकारण आज के खिलाड़ियों में न तो स्टैमिना है और न ही वो ताकत।
वर्ष 1953 में भोपाल रियासत की कप्तान 78 वर्षीय जुबेरा खातून कहतीं हैं कि आज भोपाल में हॉकी है ही नहीं, भोपाल हॉकी की बात करें तो भोपाल में औरतों की हॉकी तो खत्म ही हो गई है। पहले शहर के स्कूलों की मिडिल क्लास से ही महिला टीम बनती थी। इनमें विक्टोरिया, गिन्नौरी और हमीदिया स्कूल की टीमें प्रमुख थीं। यह टीमें देशभर में राष्ट्रीय स्तर पर टूर्नामेंट खेलने जातीं थी। आज शहर के स्कूलों में महिला हॉकी टीम तो दूर की बात है, पुरुष टीमें तक नहीं हैं। स्थिति यह है कि बीते माह शालेय जिला हॉकी टूर्नामेंट के भोपाल जिले की महिला हॉकी टीम तैयार करने के लिए भी लड़कियां कम पड़ गईं थीं।
हॉकी को पुर्नजीवित करने की कोशिश
2012-2013 में ह़ॉकी को भोपाल में एक पुनर्जन्म मिला। कई दशकों से धीरे-धीरे जिस खेल का कल्चर भोपाल की गलियों से गायब हो चुका था उसे दोबारा से एक मंच मिला। भारत में दरअसल 2012 में वर्ल्ड हॉकी सीरीज की शुरुआत हुई। इस सीरीज में देश के विभिन्न राज्यों की टीमें बनी। इसी के चलते मध्य प्रदेश से भोपाल बादशाह नाम की टीम बनी जिसमें तमाम अंतराष्ट्रीय और राष्ट्रीय खिलीड़ी टीम का हिस्सा बने। टीम के कोच वासुदेवन भास्करन बने और कप्तानी समीर देड ने की। टीम के होम मुकाबले भोपाल के एशबाग स्टेडियम में हुए।
ह़ॉकी को भोपाल में पुर्नजीवित करने की कोशिश फिर से नाकाम रही। भोपाल बादशाह का पूरे टूर्नामेंट में प्रर्दशन खराब रहा। टीम केवल 5 मैच जीत पाई और 7 मुकाबलों में उसे हार का सामना करना पड़ा जबकी 2 मुकाबले उसके ड्रॉ रहे। एक साल बाद 2013 में वर्ल्ड हॉकी सीरीज का रूप बदल गया और टूर्नामेंट ह़ॉकी इंडिया लीग के नाम से जाना जाने लगा। वर्ल्ड हॉकी सीरीज की एक तरह से समाप्ती के साथ ही भोपाल बादशाह टीम भी समाप्त हो गई। नए टूर्नामेंट में नई टीमें तो बनी मगर भोपाल की कोई टीम नहीं बन सकी। इस प्रकार भोपाल में ह़ॉकी को फिर से जीवन देने का प्रयास सफल ना हो सका।
भोपाल से हॉकी जैसे खेल का कल्चर खत्म होना देश में हॉकी की हालत को दर्शाता है। वह शहर जिसने देश को हॉकी में स्वर्ण पदक जीतने वाले खिलाड़ी दिए, आज उस शहर की गलियां उन बच्चों और युवाओं को तलाश रहीं हैं जो हॉकी स्टिक और बॉल को फिर से खेलकर उन्हें गुलज़ार कर सकें। अगर वहाँ के लोग और सरकार एक बार फिर एड़ी चोटी का जोर लगाकर फिर से हॉकी को भोपाल के लोगों के सामने लाए तो यह बहुत हद तक संभव है की हॉकी की उजड़ चुकी नर्सरी एक बार फिर गुलजार हो जाएगी और हॉकी का ब्राजील कहा जाने वाला भोपाल शहर फिर को फिर से अस्तित्व मिल जाएगा।
(Views are personal)