हाशिम रज़ा जलालपुरी का कारनामा- कृष्ण के लिए मीरा की मोहब्बत वही है, मगर ज़ुबान नई है… मीराबाई उर्दू शायरी में


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हाशिम रज़ा जलालपुरी से मेरा परिचय कब और कहाँ हुआ था ये तो याद नहीं है लेकिन इतना ज़रूर याद है कि उनसे मेरे परिचय और मुलाक़ात का माध्यम बेहतरीन नौजवान क़लमकार अमन चाँदपुरी था जो बदक़िस्मती से पिछले बरस डेंगू का शिकार होकर काल के गाल में समा गया और अब हमारे साथ नहीं है। मेरे और हाशिम के तअल्लुक़ में एक ख़ूबसूरत इत्तेफ़ाक़ ये है कि हम दोनों का संबंध उस अदबी बस्ती जलालपुर से है जो अपनी गंगा जमुनी तहज़ीब और पद्मश्री अनवर जलालपुरी तथा यशभारती नय्यर जलालपुरी के वसीले से पूरी दुनिया में मशहूर है।

जलालपुर हाशिम की जन्मभूमि है और मेरी पहली कर्मभूमि लेकिन कविता-शाइरी का सबक़ उन्होंने भी यहीं पाया और मैंने भी कविता का ककहरा यहीं सीखा क्योंकि जलालपुर में पोस्टिंग के पहले मैं कविता का ‘क’ और शाइरी का ‘शीन’ भी नहीं जानता था।इस तरह बेशक हाशिम का घर जलालपुर है और मैं वहाँ रोज़ी-रोटी के सिलसिले से सत्ताइस बरस रहा लेकिन हम दोनों का अदबी स्कूल जलालपुर ही है। इसके अलावा हम दोनों में एक गहरा रिश्ता ये भी है कि हम दोनों गुरुभाई हैं क्योंकि हाशिम रज़ा के उस्ताद-ए-मोहतरम पद्मश्री अनवर जलालपुरी ही मेरे भी साहित्यिक गुरु हैं।

तमाम दीगर फ़ुनून की तरह शाइरी भी ख़ुदादाद फ़न है। ज़ाहिर है कि हाशिम को भी शाइरी का फ़न क़ुदरत की ही देन है और अगर इस फ़न को सँवारने वाला कोई अपने घर में ही मिल जाए तो सोने में सुहागा वाली बात हो जाती है। हाशिम की ये भी ख़ुशक़िस्मती रही कि उनके वालिद जनाब ज़ुल्फ़िक़ार जलालपुरी ख़ुद नौहा, सलाम और मनक़बत के मारूफ़ शाइर हैं।

इससे हाशिम को बचपन से ही एक साथ दो फ़ायदे हुए। पहला ये कि उन्हें शाइरी की शुरूआती तालीम हासिल करने के लिए किसी उस्ताद की जूतियाँ नहीं सीधी करनी पड़ीं और दूसरा ये कि उन्हें बचपन से ही घर में शेर-ओ-शाइरी का वो माहौल मयस्सर हो गया जो बहुत कम शाइरों के हिस्से में आता है। इसी के साथ आगे चलकर उन्हें पद्मश्री अनवर जलालपुरी जैसी आलमी शोहरतयाफ़्ता शख़्सियत की सरपरस्ती भी एक उस्ताद के तौर हासिल हो गई। इन सभी संयोगों का सुखद परिणाम ये हुआ उनकी तालीम और शाइरी दोनों साथ-साथ चलती रही।हाशिम की तालीम के सिलसिले में एक दिलचस्प बात ये भी है कि उनका शौक़ साइंस था जबकि ज़ौक़ उर्दू और ये उनका हौसला ही कहा जाएगा कि एक ओर जहाँ उन्होंने इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में एम.टेक.किया तो दूसरी तरफ़ जौक़-ए-शाइरी में उन्होंने उर्दू में एम.ए.की डिग्री भी हासिल की। रोज़ी-रोटी के सिलसिले में तमाम जद्दोजहद करते हुए आजकल वो दिल्ली में अपने मुस्तक़बिल को सँवारने में लगे हैं और साथ ही शाइरी का उनका सफ़र भी जारी है। आज ग़ज़ल और मनक़बत दोनों ही मैदानों में बतौर शाइर और नाज़िम उनकी अच्छी-ख़ासी पहचान पूरे हिंदोस्तान में बन चुकी है।

आमतौर पर शोअरा का तख़लीक़ी सफ़र उन्हीं सिन्फों तक महदूद रहता है जिनमें उनकी पहचान होती है। बहुत कम शोअरा ऐसे होते हैं जो लीक से हटकर कोई तख़लीक़ी कारनामा अंजाम देते हैं। इत्तेफ़ाक़ से जलालपुर को ये शरफ़ हासिल है कि पद्मश्री अनवर जलालपुरी ने शाइरी और निज़ामत में बुलंदी हासिल करने के साथ ‘उर्दू शाइरी में गीता’ सहित एक नहीं बल्कि कई ऐसे तख़लीक़ी कारनामे अंजाम दिए जिनसे किसी को भी रश्क हो सकता है और उनकी ‘उर्दू शाइरी में गीता’ से Inspire होकर उन्हीं के नक्श-ए-क़दम पर चलते हुए हाशिम रज़ा जलालपुरी ने मीराबाई के पदों का उर्दू शाइरी में तर्जुमा करके यक़ीनन जलालपुर की गंगा-जमुनी तहज़ीब की रिवायत को आगे बढ़ाने का ऐसा बेमिसाल काम अंजाम दिया है जिसकी जितनी भी तारीफ़ की जाए, कम है।

हाशिम ने मीराबाई का ही इंतेख़ाब क्यों किया अपने तख़्लीक़ी कारनामे के लिए तो इसका इसका जवाब देते हुए वो ख़ुद ये कहते हैं कि ‘मुझे बचपन से ही मीराबाई की शख़्सियत और शाइरी से बेहद लगाव रहा है। इसीलिए मैंने छठीं क्लास में उर्दू के पर्चे में “आपका पसंदीदा शाइर या शाइरा” के जवाब में मीराबाई की शख़्सियत और शाइरी पर मज़मून लिख दिया था’।


ज़ाहिर है कि बचपन का यही इश्क़ जब वक़्त के साथ परवान चढ़ा तो हाशिम पर ये जुनून तारी हो गया कि मुझे मीराबाई की शाइरी का तर्जुमा उर्दू शाइरी में करना है। यक़ीनन ये एक बेहद मुश्किलतरीन जुनून था क्योंकि मीराबाई राजस्थान की थीं और उनके पदों की मूल भाषा राजस्थानी ही है। ये अलग बात है कि उन्होंने अपनी रचनाओं में राजस्थानी के अलावा ब्रज, अवधी, गुजराती, अरबी, फ़ारसी और उर्दू के अल्फ़ाज़ का भी इस्तेमाल किया है। हाशिम ने मीराबाई के पदों का तर्जुमा उर्दू शाइरी में करने में कितनी मेहनत की होगी इसका अंदाज़ा मीरा के एक मूल पद और हाशिम के तर्जुमे से किया जा सकता है—

मीरा का पद—
लागी सोही जाणौ कठिन लगण दी पीर।
विपत पडयां कोई निकट णा आवै सुख में सबको सीर।
बाहर घाव कछु नहिं दीसै रोम रोम दी पीर।
जन मीरा गिरधर के ऊपर सदकै करूँ सरीर।।

इस पद का हाशिम द्वारा किया गया तर्जुमा—
होती है दुश्वार ईज़ा प्यार की
जाने है आशिक़ ही पीड़ा प्यार की

साथ मुश्किल में नहीं देता कोई
सुख में साथी सबका बन जाता कोई

और ये ज़ख़्मे मोहब्बत है अजीब
ज़ख़्म दिखता नहीं दिल के क़रीब

दर्द सा रहता है पूरे जिस्म में
एक धुआँ उठता है पूरे जिस्म में

मेरे गिरधर तुमपे क़ुरबां ये बदन
है अमानत तेरी ये जां ये बदन
मैं इस ख़ुसूसी तख़्लीक़ी कारनामे के दिल से हाशिम रज़ा जलालपुरी को मुबारकबाद और दुआएँ देता हूँ और ये उम्मीद करता हूँ कि आने वाले दिनों में भी हमें उनके ऐसे और भी तमाम तख़्लीक़ी कारनामे देखने और पढ़ने के लिए मिलेंगे।

नेक ख़्वाहिशात के साथ
डा. हरि फ़ैज़ाबादी
कालीचरण इंटर कॉलेज लखनऊ उत्तर प्रदेश


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