ग़ुबार भट्टी, एक हकीम जिन्हें शेर ओ शायरी विरासत में मिली।


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ग़ुबार भट्टी का असल नाम मुश्ताक़ अहमद था। जिनकी पैदाइश जुलाई 1920 को बाराबंकी में हुई थी। उनके वालिद का नाम मौलाना निसार नूरउल्लाह भट्टी था, जो एक बड़े शायर थे, फ़ारसी, उर्दू, और हिंदी में शेर ओ शायरी करते थे। बाप का असर बेटे में आना था।

बिखरती रहती हैं हर सिम्त नूर की किरणें
मेरी ब्याज़ ना क्यूंकर हो फिर ब्याज़ ए सहर

इसका ज़िक्र करते हुवे ग़ुबार भट्टी लिखते हैं उन्हें शायरी विरासत में मिली, मै अपने वालिद मौलाना निसार अहमद ख़ा निसार भट्टी की साया ए रहमत में पला बढ़ा और परवाज़ चढ़ा। और हज़रत मौलाना हसरत मोहानी से रहनुमाई पाई।

मुश्ताक़ अहमद ने शुरुआती तालीम घर पर ही बाराबंकी में हासिल करने के बाद लखनऊ और कानपुर में तालीम हासिल की। उर्दू, फ़ारसी, अरबी, अंग्रेज़ी और हिंदी जैसी ज़ुबानों पर उबूर हासिल किया। शेर ओ शायरी करने लगे, और तख़ल्लुस ग़ुबार रखा, बाद में वालिद से भट्टी विरासत में हासिल की और ग़ुबार भट्टी हो गए। लखनऊ तकमील ए तिब कॉलेज से हिकमत की पढ़ाई मुकम्मल किया। मजरूह सल्तानपूरी भी आपके साथ पढ़ने वालों में से थे। 1938 में कानपुर में हकीम सैयद मेहदी हसन हाशमी के मतब के पास रह कर हिकमत में उबूर हासिल किया।

मुश्ताक़ अहमद ‘ग़ुबार’

कानपुर में क़याम के दौरान हकीम मुश्ताक़ अहमद ने मौलाना हसरत मोहानी से मिले। उनसे इसलाह ली और अपनी ग़ज़लें उन्हें सुनाई। वो बहुत ख़ुश हुवे। इसके बाद ये सिलसिला चलता रहा। ग़ुबार भट्टी अपनी ग़ज़लें हसरत मोहानी के पास ले जाते और वो इसलाह कर देते।

हिकमत की पढ़ाई मुकम्मल कर हमदर्द दवाख़ाना में नौकरी करने लगे, पहले दिल्ली रहे फिर इसी दवाख़ाना ने उन्हें साठ की दहाई में पटना भेज दिया। पटना में हमदर्द दवाख़ाना के पहले तबीब हकीम मुश्ताक़ अहमद ही थे। पर 1962 में हमदर्द दवाख़ाना से अलग होकर मुल्की दवाख़ाना, पटना के बाक़रगंज में खोला। जिसका उद्घाटन उस समय बिहार के स्वास्थ मंत्री ने किया। इस तरह से ग़ुबार भट्टी बाराबंकी से अज़िमाबाद के हो गए।

ग़ुबार भट्टी ने बहुत कुछ लिखा पर उनमें से बहुत कुछ ज़ाया हो गया, जिसका ज़िक्र वो ख़ुद कुछ इस तरह करते हैं की ये भी मुझे इत्तफ़ाक़न मिला के वालिद साहब की तरह मेरे कलाम का बेशतर हिस्सा भी ज़ाया हो गया। जो बचा उसे मेरे बच्चों ने शाय करवाया है। आपने 14 अगस्त 1947 को हिंदुस्तान की आज़ादी के मौक़े पर “नग़मा ए आज़ादी” के नाम से एक ग़ज़ल लिखा।

मुबारक तुझ को ये आज़ादी ए बेदार हिंदुस्तान
मुसर्रत है तेरा हर ज़र्रा है गुलज़ार हिंदुस्तान

ग़ुबार भट्टी के कलाम का मजमुआ पहली परवाज़ ए ग़ुबार के रूप में 1975 में शाय हुआ। उसके बाद स्वाद ए शाम, हुर्फ़ ए सुख़न, बयाज़ ए सहर आदि किताबों के रूप में शाय होता रहा। यूँ तो आप हकीम थे, पर अदब के लिए आपने ख़ामोशी से बहुत कुछ किया, जिसे कभी फ़रामोश नही किया जा सकता है। जब तक हयात से रहे, अदब की महफ़िलों के ज़ीनत रहे।

डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन में साथ एक महफ़िल में

ग़ुबार भट्टी का इंतक़ाल 20 फ़रवरी 1986 को 66 साल की उमर में पटना में हुआ। आपको आपकी ही एक ग़ज़ल के साथ ख़िराज ए अक़ीदत ~

अजब इंक़लाब का दौर है कि हर एक सम्त फ़िशार है
न कहीं ख़िरद को सुकून है न कहीं जुनूँ को क़रार है

कहीं गर्म बज़्म-ए-हबीब है कहीं सर्द महफ़िल-ए-यार है
कहीं इब्तिदा-ए-सुरूर है कहीं इंतिहा-ए-ख़ुमार है

मिरा दिल है सीने में रौशनी इसी रौशनी पे मदार है
मैं मुसाफ़िर-ए-रह-ए-इश्क़ हूँ तो ये शम्अ’ राह-गुज़ार है

जिसे कहते हैं तिरी अंजुमन अजब अंजुमन है ये अंजुमन
कोई इस में सोख़्ता-हाल है कोई इस में सीना-फ़िगार है

ये असर है एक निगाह का कि मिज़ाज-ए-तब्अ’ बदल दिया
जो हमेशा शिकवा-गुज़ार था वो तुम्हारा शुक्र-गुज़ार है

ये ज़रूरी क्या है कि हर बशर रहे नाम-ओ-काम से बा-ख़बर
मगर इतना जान चुके हैं सब कि तख़ल्लुस उस का ‘ग़ुबार’ है


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Md Umar Ashraf

Md. Umar Ashraf is a Delhi based Researcher, who after pursuing a B.Tech (Civil Engineering) started heritagetimes.in to explore, and bring to the world, the less known historical accounts. Mr. Ashraf has been associated with the museums at Red Fort & National Library as a researcher. With a keen interest in Bihar and Muslim politics, Mr. Ashraf has brought out legacies of people like Hakim Kabeeruddin (in whose honour the government recently issued a stamp). Presently, he is pursuing a Masters from AJK Mass Communication Research Centre, JMI & manages heritagetimes.in.