जब अंग्रेज़ो ने 356 हिन्दुस्तानी सिपाहीयों को मौत के घाट उतारा……..
सिकंदर बेगम भोपाल की शासक थीं और वह अंग्रेज़ों की समर्थक थी, जबकि फ़ौज आज़ादी के पक्ष में थी। अंग्रेज़ों के हरकत से परेशान हिन्दुस्तानी सिपाहियों का विचार था कि अंग्रेज़ हिन्दुस्तानियों की दीन-ईमान को ख़राब कर देना चाहते हैं। इस अवसर पर किसी ने फ़ौज में यह अफ़वाह फैला दी कि सिकन्दर बेगम अंग्रेजों को खुश करने के लिये छुपकर ईसाई हो गई हैं। इन अफ़वाहों से फ़ौज में रोष व्याप्त हो गया।
1 मई 1857 को भोपाल सियासत में एक पोस्टर बांटा गया, इसमें लिखा था कि हुकूमत हमारे धार्मिक मामलों में दख़ल दे रही है इसलिए इसे ख़त्म कर देना चाहिए। इसके बाद सेना के जवानों ने छुट्टी ली; इस्तीफ़ा दिए। ‘मामा कहार ख़ां रियासत भोपाल के पहले आदमी थे जिन्होने अपना वेतन और नौकरी दोनो को छोडक़र देहली जाने का फ़ैसला कर लिया। उनका देखा-देखी और सिपाहियों ने वेतन लेने से इंकार कर दिया। इस पर सिकन्दर बेगम भोपाल ने मामा कहार ख़ां को मनाने के प्रयास किया लेकिन वह राज़ी नहीं हुए। इस पर नवाब बेगम ने उस पोस्टर का एक जबावी पोस्टर 4 जून 1857 को सिकन्दर प्रेस में छपवाया और सिपाहियों में वितरित किया गया, जिसमें कहा गया कि लोग उकसावे में न आएं।
भोपाल के पाॅलिटिकल एजेंट ने आदेश दिया कि जो व्यक्ति इन पोस्टरों को लाए उसे मौत की सज़ा दी जाए। फ़ौज के तेवर देखकर पाॅलिटिकल एजेंट मेजर हैनरी विलियम घबरा गए। उन्होंने और उनके अंग्रेज़ी स्टॉफ़ ने फ़ौरन सीहोर छोड़ देने का फ़ैसला कर लिया। सिकंदर बेगम से बातचीत कर वे सपरिवार होशंगाबाद शिफ़्ट हो गए। जाने से पहले विलियम ने सीहोर का पूरा चार्ज भोपाल रियासत को दे दिया। 10 जुलाई 1857 के बाद सीहोर छावनी में एक भी अंग्रेज़ बाक़ी नहीं था। 6 अगस्त 1857 को फ़ौजियों ने भोपाल रियासत के सीहोर में बग़ावत का झंडा बुलंद किया। सिपाहियों ने वली शाह रिसालदार के नेतृत्व में बैरसिया और सीहोर में अंग्रेज़ों को चुन चुन कर मारा। उनके बंगलों में आग लगाई, ख़ज़ाना लूट लिया।
अंग्रेज़ों से भड़के सिपाहियों ने 6 अगस्त 1857 को एक सभा की, जिसमें क्रांतिकारी भाषण देते हुए वली शाह ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ तो बोला ही साथ ही उत्तेजित स्वर में बोले ‘फ़ौज के अधिकारी अच्छी तरह कान खोलकर सुन लें कि अगर उन्होने हमारे महबूब लीडर महावीर को गिरफ़्तार कर लिया तो हम फ़ौज की इमारत की ईंट से ईंट बजा कर रख देंगे और हम सभी बड़े अधिकारियों को भेड़ बकरियों की तरह काटकर फेंक देंगे।’ इसी दिन स्पष्ट कर दिया गया जो अंग्रेजों की ग़ुलामी पसंद करते हैं वह चले जायें और देश की आज़ादी पसंद करने वाले सिपाही क्रांतिकारियों का साथ दें। इसी दिन 6 अगस्त 1857 को “सिपाही बहादुर” के नाम से सरकार तक बना ली। बागियों की सरकार को दर्शाने के लिये दो झण्डे निशाने मुहम्मदी और निशाने महावीरी क़िला पस लगाये गये। ज्ञात रहे के अंग्रेज़ो के ख़िलाफ़ बनी यह पहली समानांतर सरकार थी।
इस सरकार में वली शाह, आरिफ़ शाह, महावीर और रमजू लाल जैसे लोग शामिल थे। इन्होंने प्रशासन चलाने के लिए एक कौंसिल की स्थापना की। इसका मुखिया महावीर कोठ हवलदार को बनाया गया। इसलिए यह कौंसिल महावीर कौंसिल के नाम से मशहूर हुई। सीहोर में दो अदालतें बनाई गईं। एक के मुखिया वली शाह थे तो दूसरे के महावीर। 8 जनवरी 1858 को जनरल रोज़ की विशाल फ़ौज मुम्बई के रास्ते सीहोर पहुँची। जनरल रोज़ की सेना ने यहाँ क्रांतिकारियों को पकडक़र गिरफ़्तार कर लिया। उनसे माफ़ी मांगने को कहा गया, लेकिन क्रांतिकारियों ने माफ़ी मांगने से इंकार कर दिया। अंतत: 14 जनवरी 1858 को सैकड़ो क्रांतिकारियों को सैकड़ाखेड़ी स्थित चांदमारी के मैदान पर एकत्र कर बिना किसी नियमित जांच के गोलियों से उड़ा दिया गया। अनेक किताबों और भोपाल स्टेट गज़ेटियर के पृष्ठ क्रमांक 122 के अनुसार इन शहीदों की संख्या 356 से अधिक थी।
सिपाही बहादुर सरकार जिसकी स्थापना 6 अगस्त 1857 को सीहोर में हुई थी और 31 जनवरी 1858 को उस दिन समाप्त हो गई जब फाज़िल मुहम्मद ख़ां को राहतगढ़ क़िले के दरवाज़े पर जनरल रोज़ के आदेश पर फांसी पे लटका दिया गया। बग़ावत असफ़ल होने के पश्चात भी सीहोर के बाग़ी जिन्होने सिपाही बहादुर सरकार गठित की थी किसी न किसी प्रकार अपना आंदोलन चलाते रहे परन्तु व्यापक स्तर पर उनकी गिरफ्तारियों, देश निकाले और कई सजाओं ने उनके दमखम तोड़ दिये, और अंग्रेज़ों से टकराने की इस हिमाकत की सज़ा 356 जांबाज़ों को सामूहिक मौत की सज़ा के रूप में भुगतनी पड़ी, उनका मंसूबा बिखर सा गया। मगर आज़ादी की चाह सुलगती ही गई। और इसी सरज़मीन ने बरकतुल्लाह भोपाली को पैदा किया जिसने 1 दिसम्बर 1915 को काबुल में बाकायदा अंतरिम भारत सरकार की स्थापना की।
स्वतंत्रता संग्राम के समृध्द इतिहास को अपने गर्भ में संजोये सीहोर को लेकर मध्य प्रदेश शासन और स्थानीय प्रशासन ने कभी कोई गंभीर कदम नहीं उठाये। यहाँ ऐतिहासिक स्मारकों और जीर्ण-शीर्ण हो रही समाधियों की देखरेख आज तक नहीं की गई।