सदी के सबसे महान शिक्षाविद डॉ ज़ाकिर हुसैन
सदी के महान शिक्षाविद डॉ ज़ाकिर हुसैन ने कभी कहा था :- ‘हमारे देश को गर्म खून नहीं चाहिए जो हमारी गर्दन से रिसे, बल्कि माथे का पसीना चाहिए जो साल के बारहों महीने बहता रहे. अच्छे काम, गंभीर काम करने की ज़रूरत है. किसान की टूटी हुई झोपड़ियों से, कारीगर की अंधेरी छत से और एक गांव के बेकार स्कूल से हमारे भविष्य या बनेंगे या तो बिगड़ेंगे. राजनीतिक झगड़ों को एक या दो दिन में सभा-सम्मेलन करके सुलझाना मुमकिन है, लेकिन वह जगहें जिन्हें हमने लक्षित किया है, वह सदियों से हमारे भाग्य का केन्द्र रही हैं. इन क्षेत्रों में काम करने के लिए धैर्य और दृढ़ता चाहिए. यह मेहनत का और बिना नतीज़ों वाला काम है. इसका नतीजा जल्दी आने वाला नहीं है. लेकिन हां, जो देर तक इस रास्ते पर काम करेगा, उसे सकारात्मक परिणाम ज़रूर मिलेंगे.’
डॉ. जाकिर हुसैन इस देश के तीसरे राष्ट्रपति थे. 1954 में पद्म विभूषण और 1963 में भारत रत्न से सम्मानित किए गए, पर,उनका सिर्फ यही एक परिचय नहीं है. जाकिर साहब 23 वर्ष की उम्र में ही जामिया मिल्लिया के स्थापना दल के सदस्य बने. सन 1969 में निधन के बाद उन्हें उसी परिसर में दफनाया गया जहां वे 1926 से 1948 तक वाइस चांसलर थे. जाकिर हुसैन भारत के तीसरे राष्ट्रपति थे, उनका कर्यकालिन समय 13 मई 1967 से अपनी मृत्यु 3 मई 1969 तक रहा है। हुसैन देश के पहले मुस्लिम राष्ट्रपति और साथ ही राष्ट्रपति होते हुए मरने वाले पहले राष्ट्रपति थे। साथ ही भारत के सबसे कम कर्यकालिन समय वाले राष्ट्रपति भी थे। राष्ट्रपति बनने से पहले उन्होंने 1957 से 1962 तक बिहार का गवर्नर बने रहते हुए और 1962 से 1967 तक भारत का उपराष्ट्रपति बने रहते हुए सेवा की. खुर्शीद आलम खान जाकिर हुसैन के दामाद थे. कांग्रेस नेता व पूर्व मंत्री सलमान खुर्शीद, खुर्शीद आलम खान के पुत्र हैं.
जाकिर साहब का जन्म 8 फरवरी, 1897 को हैदराबाद में हुआ था. उनके पिता हैदराबाद में वकालत करते थे. साथ में कानून की पत्रिका ‘आइने दक्कन’ का संपादन भी. उनके पूर्वज अफगान के बहादुर सैनिक थे. पर जाकिर साहब के पिता फिदा हुसैन खान ने परंपरा तोड़ कर वकालत शुरू की. जाकिर हुसैन 9 साल के ही थे कि उनके पिता गुजर गए. उनका परिवार 1907 में इटावा पहुंच गया. जाकिर साहब ने अपने तीन भाइयों के साथ इस्लामिया हाई स्कूल में शिक्षा ग्रहण की. अलीगढ़ विश्वविद्यालय से अर्थशास़्त्र में एम.ए.करने के बाद जाकिर साहब 1923 में जर्मनी चले गए. बर्लिन विश्वविद्यालय से उन्होंने पीएचडी की.
अलीगढ़ विश्वविद्यालय पहले मोहम्डन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज कहा जाता था जब जाकिर साहब वहां छात्र थे. तभी एक बार गांधी जी ने वहां छात्रों-अध्यापकों को संबोधित किया था. गांधी जी ने कहा था कि भारतीयों को ऐसी शिक्षा संस्थाओं का बहिष्कार करना चाहिए जिन पर ब्रिटिश सरकार का नियंत्रण है. इसका असर जाकिर हुसैन पर भी पड़ा. उन्होंने अलीगढ़ में मुस्लिम नेशनल यूनिवर्सिटी (बाद में दिल्ली ले जायी गई) की स्थापना में मदद की और 1948 तक इसके कुलपति रहे।
बुनियादी शिक्षा की जो कल्पना गांधी की थी, उसका क्रमिक विकास जाकिर हुसैन ने किया. जामिया मिल्लिया को उन्होंने इसका एक नमूना बनाया था. सन 1967 में राष्ट्रपति बनने के बाद डॉ. हुसैन ने कहा कि देशवासियों ने इतना बड़ा सम्मान उस व्यक्ति को दिया है जिसका राष्ट्रीय शिक्षा से 47 वर्षों तक संबंध रहा. मैंने अपना जीवन गांधी जी के चरणों में बैठकर शुरू किया जो मेरे गुरु और प्रेरक थे. शिक्षा से उनका शुरू से ही गहरा लगाव रहा, जिसे देखते हुए गांधी जी ने 1937 में उन्हें उस राष्ट्रीय शिक्षा आयोग का अध्यक्ष बनाया, जिसकी स्थापना गांधीवादी पाठ्यक्रम बनाने के लिए हुई थी। आगे चलकर जाकिर हुसैन ने उस बुनियादी शिक्षा के क्रमिक विकास को बढ़ावा दिया, जिसकी कल्पना गांधी जी ने की थी.
1948 में हुसैन अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति बने और चार वर्ष के बाद उन्होंने राज्यसभा में प्रवेश किया। 1956-58 में वह संयुक्त राष्ट्र शिक्षा, विज्ञान और संस्कृति संगठन (यूनेस्को) की कार्यकारी समिति में रहे। 1957 में उन्हें बिहार का राज्यपाल नियुक्त किया गया और 1962 में वह भारत के उपराष्ट्रपति निर्वाचित हुए। 1967 में कांग्रेस पार्टी के आधिकारिक उम्मीदवार के रूप में वह भारत के राष्ट्रपति पद के लिए चुने गये और मृत्यु तक पदासीन रहे. राष्ट्रपति बनने पर अपने उद्घाटन भाषण में उन्होंने कहा था कि समूचा भारत मेरा घर है और इसके सभी बाशिन्दे मेरा परिवार हैं। 3 मई 1969 को उनका निधन हो गया। वह देश के ऐसे पहले राष्ट्रपति थे जिनका कार्यालय में निधन हुआ.
डॉ. ज़ाकिर हुसैन बेहद अनुशासनप्रिय व्यक्तित्त्व के धनी थे। उनकी अनुशासनप्रियता नीचे दिये प्रसंग से समझा जा सकता है। यह प्रसंग उस समय का है, जब डॉ. जाकिर हुसैन जामिया मिलिया इस्लामिया के कुलपति थे। जाकिर हुसैन बेहद ही अनुशासनप्रिय व्यक्ति थे। वे चाहते थे कि जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्र अत्यंत अनुशासित रहें, जिनमें साफ-सुथरे कपड़े और पॉलिश से चमकते जूते होना सर्वोपरि था। इसके लिए डॉ. जाकिर हुसैन ने एक लिखित आदेश भी निकाला, किंतु छात्रों ने उस पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। छात्र अपनी मनमर्जी से ही चलते थे, जिसके कारण जामिया विश्वविद्यालय का अनुशासन बिगड़ने लगा। यह देखकर डॉ. हुसैन ने छात्रों को अलग तरीके से सुधारने पर विचार किया। एक दिन वे विश्वविद्यालय के दरवाज़े पर ब्रश और पॉलिश लेकर बैठ गए और हर आने-जाने वाले छात्र के जूते ब्रश करने लगे। यह देखकर सभी छात्र बहुत लज्जित हुए। उन्होंने अपनी भूल मानते हुए डॉ. हुसैन से क्षमा मांगी और अगले दिन से सभी छात्र साफ-सुथरे कपड़ों में और जूतों पर पॉलिश करके आने लगे। इस तरह विश्वविद्यालय में पुन: अनुशासन कायम हो गया.