अरशद काकवी, सहते रहे हैं ज़ुल्म हम अहल-ए-ज़मीन के ~ इल्ज़ाम आसमान पे धरते रहे हैं हम
सैयद शाह रशीद उर रहमान का जन्म अप्रैल 1926 को बिहार के जहानाबाद ज़िला के काको में हुआ था, वालिद का नाम सैयद अता उर रहमान अता अता काकवी था, जिनका उर्दू अदब की दुनिया में बड़ा नाम था।
बाप का हुनर बेटे को विरासत में मिला। सैयद शाह रशीद उर रहमान की शुरुआती तालीम घर पर हुई। फिर ज़िला स्कूल मुज़फ़्फ़रपुर से मैट्रिक किया। फिर मुज़फ़्फ़रपुर के भूमिहार ब्राह्मण कॉलेज जिसे आज लंगट सिंह कॉलेज के नाम से जाना जाता है, से इंटर पास किया और फिर पटना कॉलेज से उर्दू में बी॰ए॰ किया। फिर 1951 में ढाका यूनिवर्सिटी से एम॰ए॰ काफ़ी अच्छे नम्बर से पास किया।
पढ़ाई मुकम्मल कर पहले कोमला कॉलेज में पढ़ाना शुरू किया, फिर क़ायद ए आज़म कॉलेज में उर्दू के लेक्चेरर बने। पढ़ने पढ़ाने के साथ आपको लिखने का भी शौक़ था। शेर ओ शायरी भी करने लगे थे। ये फ़न उन्हें विरासत में मिला था। उन्होंने अपना तख़ल्लुस अरशद रखा और दुनिया में अरशद काकवी के नाम से मशहूर हुवे।
वो एक खेल जो खेला गया शरारों का
चमन ग़रीब को धोखा हुआ बहारों का
पते की बात है लेकिन चमन से कौन कहे
ख़ज़ां ने रूप निखारा तेरी बहारों का
वैसे अरशद काकवी ने सिर्फ़ शेर ओ शायरी नही की। उनके लिखे लेख और मज़मून उनकी ग़ज़ल और नज़म की तरह भारत पाकिस्तान के कई मैगज़ीनों में लगातार छपते रहे। वो ज़माने तक ढाका यूनिवर्सिटी के जर्नलिज़म डिपार्टमेंट से जुड़े रहे। एक पत्रकार की हैसयत से उनके लेख ख़ूब छपे। ढाका से निकलने वाले नदीम नाम के एडिटोरीयल बोर्ड में भी रहे।
पर क़िस्मत को कुछ और मंज़ूर था, अरशद काकवी की सेहत गिरने लगी, बीमार रहने लगे और लियुकीमिया का शिकार हो गए और पटना में इलाज के दौरान 37 साल की उमर में 18 फ़रवरी 1963 को इंतक़ाल कर गए। उन्हें उनके आबाई वतन में दफ़ना दिया गया। अरशद काकवी नही रहे, लेकिन उनके लिखे कलाम आज भी कई किताबों की शक्ल में मौजूद हैं। अरशद काकवी को उन्ही की लिखी हुई ग़ज़ल के साथ ख़िराज ए अक़ीदत ~
जीना है एक शग़्ल सो करते रहे हैं हम
है ज़िंदगी गवाह कि मरते रहे हैं हम
सहते रहे हैं ज़ुल्म हम अहल-ए-ज़मीन के
इल्ज़ाम आसमान पे धरते रहे हैं हम
मिलते रहे हैं राज़ हमें अहल-ए-ज़ोहद के
नाज़ अपने शग़्ल-ए-जाम पे करते रहे हैं हम
अहबाब की निगाह पे चढ़ते रहे मगर
अग़्यार के दिलों में उतरते रहे हैं हम
जैसे कि उन के घर का पता जानते नहीं
यूँ उन की रहगुज़र से गुज़रते रहे हैं हम
करते रहे हैं क़ौम से हम इश्क़ बे-पनाह
हाँ नासेहान-ए-क़ौम से डरते रहे हैं हम
शरमाएँ क्यूँ न हम से उफ़ुक़ की बुलंदियाँ
ख़ुद अपने बाल-ओ-पर को कतरते रहे हैं हम