जलियांवाला बाग़ हत्याकांड के 100 वर्ष


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Hafeez Kidwai

साल तो यही था 19 ही मगर 1919 और तारीख भी यही थी। कुछ लोग थे जो चाहते थे की उनकी हर साँस पर पहरा न बैठाया जाए। चाहते थे की उन्हें उनके मुल्क में सरकार जब चाहे बिना वजह बताए गिरफ्तार करने के मंसूबे छोड़ दे। वह जानते थे की जिस दिन उनकी साँस पर पहरा बैठा दिया जाएगा उस दिन आज़ादी का ख्वाब चकनाचूर हो जाएगा।

ज़ाहिर है यह रौलट एक्ट की कहानी थी, जिसके ख़िलाफ़ महात्मा गाँधी अपने साथियों संग जूझ रहे थे। इसी कड़ी में उनके अहम साथी और आज़ादी की लड़ाई के तमाम हीरो में से एक डा सैफुद्दीन किचलू और डा सतपाल गिरफ्तार कर लिए गए। इन्हें गिरफ़्तार करके कहाँ रखा गया किसी को पता नही, अजब बेचैनी का माहौल। स्वर्ण मन्दिर के पास ही एक जगह इसका विरोध रखा गया। उस जगह का नाम था जलियाँवाला बाग़…

करीब बीस पच्चीस हज़ार लोग जलियाँवाला बाग़ में इकट्ठे हुए और उनकी मांग थी की बिना शर्त डा सैफुद्दीन किचलू को रिहा किया जाए। दिनभर चले इस धरने को रोकने के लिए ब्रिगेडियर डायर को भेजा गया।;जब शाम हो चली तो डायर सैनिक लेकर जलियाँवाला बाग़ की तरफ़ चल पड़ा। यह ऐसी जगह थीं जहाँ से निकलने का एक ही रास्ता था। वहीं उसी रास्ते पर फ़ोर्स लगाकर अन्धाधुन गोलियां चलवा दीं। देखते ही देखते पूरा मैदान लाशो में बदल गया। हम यह नही कहेंगे की तुम इसे सोचकर दर्द से चीखने लगो। न कहेंगे की बहुत अफ़सोस करो। बस इतना कहेंगे की जलियाँवाला बाग़ को भूलो मत। देश जो लम्बे वक़्त से मांग कर रहा था की अँगरेज़ उससे माफ़ी मांगे। आखिर ब्रिटेन ने देश से जलियाँवाला बाग़ कांड के लिए माफ़ी मांग ली। कैमरून 2013 में ही इसकी भत्सर्ना लिखकर गए थे,जिससे उनके माफी मांगने का रास्ता बना।

अब सोचिये की लोग शहीद हुए थे उस दौर में, वह भी किसके लिए, हमारी आज़ादी और डा सैफुद्दीन के लिए। एक मैदान के अंदर उन्होंने शहादत तो चुनी मगर बँटना नही चुना। लाशो में बिखर जाना तो पड़ा मगर दिल ओ दिमाग से एक होना चुना। वह जो जलियाँवाला बाग़ में खून बहा था वह हिन्दू, सिख, मुसलमान का नही था, भारत का था। जिससे तड़पकर पूरा देश एक हुआ था। हम कितने बेगैरत लोग हैं जो ज़रा ज़रा से फ़ायदे और बहकावे में आकर आपस मे बंटने लगते हैं। वह कितने घिनौने और देशद्रोही लोग हैं जो हिन्दू और मुसलमान को बाँटकर अपने लिए रास्ता बनाते हैं। हम क्यों नही कहते की हम डा किचलू और डा सत्यपाल के लोग हैं। जलियाँवाला बाग़ में शहीद हुए खून की उपज हैं हम भारतीय।

आजका दिन याद रखो या भूल भी जाओ मगर यह हमेशा याद रखना जो भी, हाँ जोभी हिन्दू और मुसलमानों को बाँटने की बात करे, वह जनरल डायर के लोग हैं। जो भी अली और बजरंगबली में फर्क करके चलने को कहे वह डलहौजी के लोग हैं। जो भी केवल हिन्दुओं को कोसे या केवल मुसलमानों को कोसे वह सांडर्स के लोग हैं। कुल मिलकर यह वही लोग हैं जो आज़ाद भारत का ख्वाब नही देखते थे, बल्कि ग़ुलाम भारत का ही ख्वाब देखते थे। बस फर्क इतना था की देश इनके हाथ का गुलाम बन जाए, जो ख़्वाब इस देश के संविधान ने चकनाचूर कर दिया।

जलियाँवाला बाग़ सामने रखो और हमेशा सतर्क रहो। पता नही कब कौन जनरल डायर बनकर साथ मिलजुलकर चलने वालों को लाश बना दे। जलियाँवाला बाग़ में हुए हर शहीद के सामने सर झुकाकर कहता हूँ की आपके ही रक्त से उपजे हुए आजाद भारत का नागरिक हूँ। अपनी आखरी साँस तक आपके दिए एकता, न्याय, भाईचारा और सहिष्णुता जैसे मूल्यों की रक्षा करूंगा।

लेखक #हैशटैग का उपयोग कर लगातार कई मुद्दो पर लिखते रहे हैं!


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