Heritage Times

Exploring lesser known History

Historical Event

स्वामी विवेकानंद की जयंती पर

Shubhneet Kaushik

“उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत”, स्वामी विवेकानंद का प्रिय उपनिषद-वाक्य था। जिसमें बोध/ज्ञान प्राप्त करने के लिए जाग्रत होने का आह्वान किया गया था। वे जानते थे कि ज्ञान-प्राप्ति का मार्ग छुरी की धार पर चलने सरीखा कठिन और दुर्गम है (‘क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया’)। मानवता के बगैर, विवेकानंद के लिए देशभक्ति या ऐसी कोई भी बात बेकार थी।

जो अतीतजीवी हो चले थे, भारत के ‘स्वर्णिम अतीत’ का गुणगान गाते नहीं थकते थे लेकिन वर्तमान की उपेक्षा करते थे, उन्हें फटकारते हुए विवेकानंद ने कहा : “शुद्ध आर्य रक्त का दावा करने वालो, दिन-रात प्राचीन भारत की महानता के गीत गाने वालो, जन्म से ही स्वयं को पूज्य बताने वालो, भारत के उच्च वर्गो, तुम समझते हो कि तुम जीवित हो! अरे, तुम तो दस हजार साल पुरानी लोथ हो…तुम चलती-फिरती लाश हो…मायारूपी इस जगत की असली माया तो तुम हो…तुम हो गुजरे भारत के शव, अस्थि-पिंजर…क्यों नहीं तुम हवा में विलीन हो जाते, क्यों नहीं तुम नए भारत का जन्म होने देते?”

शिक्षित भारतीयों को संबोधित करते हुए विवेकानंद ने कहा था: “जब तक लाखों-लाख लोग भूख तथा अज्ञान से ग्रस्त हैं, मैं हर उस व्यक्ति को देशद्रोही कहूँगा जो उनके खर्च पर शिक्षा पाकर भी उन पर कोई ध्यान नहीं देता”।
नर-नारायण की सेवा को ध्येय बनाते हुए विवेकानंद ने “रामकृष्ण मिशन” की स्थापना की। विवेकानंद का कहना था कि “मैं एक ही ईश्वर को मानता हूँ जो सभी आत्माओं की एक आत्मा है और सबसे ऊपर है। मेरा ईश्वर दुखी मानव है, पीड़ित मानव है; मेरा ईश्वर हर जाति का निर्धन मनुष्य है।”

जाति-प्रथा और छुआ-छूत की भावना पर तीखी टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा : “हमारे सामने खतरा यह है कि हमारा धर्म रसोईघर में बंद न हो जाए। हममें से अधिकांश न वेदांती हैं, न पौराणिक, न ही तांत्रिक; हम केवल ‘हमें मत छुओ’ के समर्थक हैं। हमारा ईश्वर भोजन के बर्तन में है और हमारा धर्म यह है कि ‘हम पवित्र हैं, हमें छूना मत।’

“देशभक्ति” के बारे में टिप्पणी करते हुए विवेकानंद ने कहा था : “लोग देशभक्ति की बातें करते हैं। मैं देशभक्त हूँ, देशभक्ति का मेरा अपना आदर्श है…सबसे पहली बात है, हृदय की भावना। क्या भावना आती है आपके मन में, यह देखकर कि न जाने कितने समय से देवों और ऋषियों के वंशज पशुओं-सा जीवन बिता रहे हैं? देश पर छाया अज्ञान का अंधकार क्या आपको सचमुच बेचैन करता है? यह बेचैनी देशभक्ति का पहला कदम है।”

विवेकानंद के लिए युग की नैतिकता का सही मतलब था धनी-मानी वर्गों के हर तरह के विशेषाधिकारों का खात्मा : “ताकत के बूते निर्बल की असमर्थता का फायदा उठाना धनी-मानी वर्गों का विशेषाधिकार रहा है, और इस विशेषाधिकार को ध्वस्त करना ही हर युग की नैतिकता है।”

समाजवाद पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा था: “भले ही समाजवाद आदर्श व्यवस्था न हो, लेकिन न कुछ से तो बेहतर ही है”। गति को जीवन का चिह्न मानने वाले इस विचारक ने विचार और कर्म की स्वतंत्रता पर ज़ोर देते हुए कहा था कि “विचार और कर्म की स्वतंत्रता जीवन, विकास तथा कल्याण की अकेली शर्त है। जहाँ यह न हो वहाँ मनुष्य, जाति तथा राष्ट्र सभी पतन के शिकार होते हैं।”


Share this Post on :
Translate »